सोमवार, 20 नवंबर 2017

भावनाओं के बाजार की संभावनाएं.....

शहर के मुख्य बाजार की  पैदल तफरी, आभासी दुनिया की चर्चाओं और विवाद के बीच भावनाओं का कॉकटेल....

कल #जयपुर के #चौड़ा रास्ता स्थित बाजार में पैदल चहल कदमी करते हुए #साहू की चाय  पीते बच्चों से उस समय की बात होती रही जब कभी इस बाजार के बीच से पैदल चलते सामान्य जन , पालकी में या अन्य वाहनों से खरीददारी के लिए अथवा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए जाते धनाढ्य वर्ग के लोग /लुगाई गुजरते रहे होंगे....
 किसी एक स्थान पर खड़े जैसे आँखों के सामने वह समय सजीव हो सैर पर निकल पड़ता है. ज्योतिष की मानें तो प्रत्येक व्यक्ति ही नहीं, स्थान और प्रश्न की भी कुंडली होती है.... उस शास्त्र का ज्ञान तो नहीं मगर घर, मकानों, महलों , किलों और शहरों की भी रूह होती है...

 होती है पर जोर नहीं दूँगी.  महसूस होती है यही कहती हूँ....
 जिस तरह उम्र अपनी सीढ़ियाँ चढ़ती जाती है, स्मृतियों का दायरा भी बढ़ता जाता है. आपकी संवेदना उन स्थानों की रूह को अवश्य महसूस करती है जहाँ से आप गुजरते हैं ....
इतिहास विषय को पढ़ने के कारण समझें या इतिहास  में रूचि होने के कारण या फिर अपनी मिट्टी, संस्कृति , सभ्यता से जुड़े होने की ललक के कारण अपनी धरोहरों के प्रति एक आकर्षण सा महसूस होता है और यह आकर्षण गिने चुने लोगों में नहीं है...आमेर महल, सिटी पैलेस, हवा महल में अटी पड़ी भीड़ भी यही दिखाती है कि उन स्मृतियों से जुड़ना, उनको महसूस करना अपने आप में बेहद रोमांचक है. सिटी पैलैस में राजा महाराजाओं के आदमकद चोगे,वस्त्र, शस्त्र आदि एक कल्पना लोक को आपके सामने साकार करते हैं. अजब सम्मोहन है जो पर्यटकों को अपनी ओर खींच लाता है देश विदेश से...

चित्तौड़ महल को भीतर से देखना नहीं हो पाया था मगर वहाँ से गुजरते एक उदासी महसूस की जा सकती है....कपोल कल्पना नहीं...नाजियों द्वारा गैस चैंबर में मारे गये लोगों की दुर्गंध आज  भी वहाँ के सन्नाटों में लोग महसूस करते हैं...वैसी ही जौहर की अग्नि में लिपटी कितने हजार स्त्रियों/बच्चों की चीखें उस स्थान की रूह में अनुभव करते रहे हैं लोग...और इतिहास के ये पन्ने पलटते हुए उन लोगों की मानसिक स्थिति को समझा जा सकता है जिनका उस मिट्टी से वास्ता रहा हो....
ऐसे में कोई आपसे कहता है कि आप स्वयं को उस स्थिति में रख कर देखें तो वह आपका अपमान नहीं करता  बल्कि अपनी पीड़ा को प्रकट कर रहा  होता है.

ताजातरीन पद्मावती के संबंध में हो रहे विरोध, प्रदर्शनों के पीछे यह पीड़ा साफ प्रकट होती है....
जिस महारानी ने  अपने मान के लिए धधकती अग्नि में कूदकर इसलिए प्राण दे दिये हों कि उसकी राख भी किसी के हाथ न लगे. उसको स्वप्न में वहशी आक्रांता की प्रेयसी के रूप में फिल्मांकित कर ग्लैमराइज किया जाये तो विरोध /प्रदर्शन द्वारा प्रतिक्रिया स्वाभाविक है.
यदि फिल्मकार के पक्ष में यह कहा जाये कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन का साधन है तो उनके द्वारा किरदार भी वही लिये जाने चाहिए जो अवास्तविक हों. सच्चे नामों के साथ मनोरंजन अनुचित ही माना जायेगा. यदि मनोरंजन ही उद्देश्य है तो चरित्र काल्पनिक होने चाहिए. 
 हमारे देश में आज भी सिनेमा मनोरंजन का सबसे  बड़ा माध्यम है.  इसके जरिये करोड़ों का व्यापार एवं मुनाफा होता है अत: वह नागरिकों के जीवन, जीवन शैली और आचार व्यवहार और सोच पर अवश्य प्रभाव   डालता है. धर्म, इतिहास, राजनीति पर आम जन की जानकारी इन संचार माध्यमों के जरिये ही पुष्ट होती है जो भविष्य का इतिहास बनती है.

यदि फिल्मकार इस बात पर दृढ़ है कि कोई भी दृश्य वास्तविक किरदार के मान और चरित्र को धूमिल नहीं करता और वास्तव में ऐसा ही है तब प्रदर्शन अनुचित है.

विरोध करने वालों के लिए भी यह अनुचित है कि एक स्त्री के मान के लिए वह दूसरी निरपराध स्त्री का शब्दों से भी मानभंग करें...जैसा कि एक अभिनेत्री और फिल्म के समर्थन करने वालों के  लिए अनर्गल शब्दों का प्रयोग किये जा रहे.... मान और मानभंग दोनों का ही बोझ सिर्फ स्त्रियाँ  ही क्यों उठायें!

और सबसे आखिरी में वह बात जिसकी सुगबुगाहट जोरों पर है कि यह सब विरोध, प्रदर्शन , चर्चाएं सिर्फ प्रचार तंत्र का ही हिस्सा है तो हम आम जनता सिर्फ दो पाटन के बीच उल्लू बने हैं.  हमारे जैसे संवेदनशील होकर यह लेख लिखने वाले भी... 
विचार आवश्यक है कि हम सब भावनाओं के बाजार के मोहरे तो नहीं बन रहे.  संवेदनाओं का भी अपना एक बाजार है जहां बस भावनाएं खरीदी जाती हैं...जहां भावुक लोगों को यह मोल सिर्फ पैसों से नहीं बल्कि आंसुओं, दर्द, व्यथा, अपमान, मानसिक संताप से भी चुकाना पड़ता है!!

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

सोचिये उन लोगों के बारे में भी जिनकी कमाई का जरिया सिर्फ पंडिताई है..... 😊

पंडित जो कि अपनी आजीविका मंदिरों में पूजा पाठ कर मिलने वाली दान दक्षिणा से ही चलाते रहे थे.  उनका आदर सत्कार कर विभिन्न अवसरों पर भोजन की व्यवस्था समाज करता रहा...
अभी भी बहुत से पंडित ऐसे हैं जो सिर्फ मंदिरों में साफ सफाई पूजा पाठ कर अथवा विभिन्न #यजमानों के यहाँ पूजादि कर अपनी आजीविका चलाते हैं. 
क्या सिर्फ भोजन की व्यवस्था हो जाने से व्यक्ति की सभी  जरुरतें पूरी हो जाती हैं...शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन , मकान आदि के लिए धन की आवश्यकता उन पंडितों को भी तो होती होगी कि नहीं...जिनके लिए
यह उनका कार्य है /#रोजगार है... हम इनकी बुराई तो खूब कर लेते हैं मगर यह नहीं सोचते कि हर व्यक्ति अपने रोजगार में ज्यादा से ज्यादा कमाना चाहता है....
क्या व्यवसाय करने वाले अपने #व्यवसाय को बढ़ाने के लिए विभिन्न उपाय नहीं करते....
शिक्षा, चिकित्सा आदि सेवा वाले क्षेत्र में भी क्या प्रशिक्षित लोग सिर्फ सेवा ही करते हैं. क्या वे सब कार्य मुफ्त में करते हैं....??
जिस तरह इन सभी क्षेत्रों में व्यवसायी अथवा सेवक मोल भाव करते हैं उसी तरह पंडित भी करते हैं तो सिर्फ उन्हें ही कोसा जाना क्या उचित है? जिस तरह बाकी स्थानों पर हम जाँच पड़ताल कर कम कीमत पर उचित परिणाम देने वाले लोगों को चुनते हैं उसी प्रकार यह आपकी सुविधा है कि आप भी योग्य पंडितों को ही चुनें यदि आपको उनमें विश्वास है....वरना उन्हें उनके हाल पर छोड़ें...
किसी भी क्षेत्र में योग्य को चुनना हमारी जिम्मेदारी है जो सिर्फ पानी पी -पी कर कोसने से पूरी नहीं होती....यह कोई आवश्यक सेवा भी नहीं है कि पंडितों के पास जाना अनिवार्य ही हो जैसे आप चिकित्सक, व्यापारी, लुहार, सुनार, गौ पालक, किसान के पास न जायें तो आपका कार्य बाधित होता है. वैसा पंडित के पास न जाने से नहीं होता... फिर काहे की मगजमारी....
जब उन पर विश्वास नहीं तो उनके पास जाना क्यों....
और यदि आप #पूजा पाठ वगैरह में विश्वास रखते हैं तो भी  आपके पास योग्य को चुनने की पूरी शक्ति है....यदि आप मंदिर नहीं जाते, पंडितों के पास नहीं जाते तो आपको कोई मजबूर नहीं कर सकता .... यह कोई सरकारी कार्य तो है नहीं जहाँ आपको मजबूरन उन लोगों को चुनना है जो तय किये गये कार्य के योग्य ही नहीं है...और न कोई अत्यावश्यक सेवा है जो आपको लेनी ही है....उनकी अयोग्यता से कुछ बिगाड़ भी नहीं होने वाला है !
अयोग्य पंडितों के लिए तो हमने #पोंगा पंडित नाम ढ़ूंढ़ रखा है मगर अन्य क्षेत्रों के अयोग्यों को भी कोई नाम दे कर देखें...

मैं स्वयं नवरात्रि में झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली कन्याओं को ही भोजन कराती हूँ और कोई मुझे न ऐसा करने से रोकता है न इस पर सवाल उठा सकता है...
तो क्या मुझे उन कन्याओं की भर्तस्ना करने का अधिकार मिल जाता है जो खाते पीते घरों की हैं जिन्हें हममें से ही कुछ लोग बड़े आदर सत्कार से भोजन करवाते है, दक्षिणा या विभिन्न उपहार देते हैं....
सोचिये न.....
और अगली बार किसी व्यक्ति के रोजगार  को गरियाने से पहले एक बार फिर से सोचिये...जरुर सोचिये उन लोगों के बारे में भी जिनकी कमाई का जरिया सिर्फ पंडिताई है..... 😊

बुधवार, 7 जून 2017

समाज में बुजुर्गों के प्रति व्यवहार ....एक पहलू यह भी

समाज में बुजुर्गों की दुर्दशा पर हम अकसर बात करते हैं, चिंता जताते हैं. सही भी है . बुढ़ापे में जब व्यक्ति अर्थ और शरीर से लाचार होता है ,सहानुभूति स्वाभाविक है ही....और कई बार परिवार वाले उनका सब धन हथिया कर उनको बदहाल कर रखते हैं .....
हमारी संस्कृति में माता पिता के उच्चतम स्थान को ध्यान में रखते हुए अपनाते हुए हम इस दूसरे पहलू पर बात करने से आँख चुराते हैं ....अपने कमाने खाने के समय बेरोजगार बच्चों के प्रति , पढ़ने में फिसड्डी रहे, पुराने दकियानूसी विचारों से अलग हट कर जीवन जीने वाले , प्रेम विवाह करने वाले या उसमें असफल हो जाने वाली संतानों के प्रति उनका रवैया बहुत कठोर होता है जो उनकी मानसिक स्थिति पर बहुत बुरा असर डालता है.
हाँ ...कई बार हद से अधिक प्रेम करते उनकी जायज /नाजायज सभी माँगों को पूरा करते हर हालत में अपनी  ही सुविधा चाहने वाला बना देने में भी माता पिता की भूमिका महत्वपूर्ण है.
 एक सत्य यह भी है कि  कभी बुजुर्ग भी बहुत हठी होते हैं.   तीन चार बेटे होने पर सिर्फ एक  के प्रति झुकाव उन्हें दूसरों के प्रति अधिक कठोर बना देता है.

हर समय माता पिता के कदमों के नीचे जन्नत नहीं होती, कभी मर्मान्तक पीड़ा देते काँटे भी होते हैं जिससे लहुलुहान तन मन किसी अन्य को दिखा भी नहीं पाता और यह दर्द उनके माता पिता के बुजुर्ग होने पर उनके प्रति बच्चों के व्यवहार की नींंव रखता है.
हम लोग श्री राम को वनवास दिये जाने पर भी राम के व्यवहार का संदर्भ और उदाहरण पेश करते हैं मगर यह नहीं देखते किउस पिता के मन में अपनी संतान के प्रति कितना प्रेम रहा होगा जिसने अपने द्वारा किये अन्याय की ग्लानि में अपने प्राण ही त्याग दिये थे...
पूरे विश्व में ही कम उम्र या उम्रदराज उन अपराधियों की संख्या भी बढ़ रही है जिन्होंने अपने बुजुर्गों के ही नृशंस हमलावर हुए हैं.
एक चेतावनी है सभी माता पिता के लिए अपने व्यवहार के आकलन की......


बुधवार, 11 जनवरी 2017

कुछ तो करें हम भी.....

आज फिर से दरवाजे पर दस्तक थी खाना माँगने वाले की...एक बच्चा गोद में एक अँगुली पकड़ा हुआ....कानों में , गले में,  पैरों में आभूषण पहने हुए युवती को माँँगते देख दिमाग गरम होना ही था और मेरी किस्मत भी अच्छी थी कि वह मेरी बात सुनने को तैयार भी हो गई....
तुम्हें शर्म नहीं आती ....तुम्हें अपने बच्चों पर दया नहीं आती ....इन मासूम बच्चों से भीख मँगवा रही हो....
कुछ काम नहीं कर सकती...
क्या काम करें आँटीजी कोई काम नहीं देता....नोट बंद हो गये....
और जो चौराहे पर औरतें बच्चे गुब्बारे , अखबार और अन्य छोटी चीजें बेचते हैं...औरतें घरों में , दुकानों पर झाड़ू पोंछा करती हैं, खाना बनाती हैं....क्या वो पागल हैं....वे भीख नहीं माँग सकती थीं मगर उन लोगों ने इज्जत से रोटी  खाने का रास्ता चुना...तुम भी ऐसा कोई काम कर लो....
वह बिना कुछ बोले चली गई मगर मेरी आँखों के सामने ट्रैफिक लाइट पर अपनी गाड़ी के शीशे चढ़ाते लोग गुजर गये....
इन चौराहों पर छोटी -छोटी चीजें बेचने वालों की अनदेखी करते हम लोग ही इन्हें भीख माँगने पर मजबूर करते हैं...यदि हम रोज इनसे दस रुपये का सामान भी खरीद लें तब हमारे ज्यादा से ज्यादा 300 ही खर्च होते हैं मगर  इस तरह हम देश में भिखारियों की संख्या पर अंकुश लगाते हैं.....सड़क किनारे खाली कागज या कपड़ा बिछाकर सामान बेचते लोगों से वस्तु खरीद कर काम में लेना नागवार गुजरे तो इन्हें उन लोगों में भी बाँटा जा सकता है जिनके लिए यही बहुत बड़ी या दुर्लभ चीजें हैं....
इस तरह दोतरफा सहायता होगी ...पहले सामान बेचने वाले को और दूसरा जिन्हें वे चीजें प्राप्त होंगी....भीख माँगने वालों से घर के छोटे मोटे काम जैसे साफ सफाई , गेहूँ साफ करना, लॉन साफ करना, गमले में पौधे लगवाने आदि कार्य करने पर ही पैसे, खाना , कपड़े आदि दें ताकि वे स्वावलंबन का पाठ भी पढ़ें.... वृद्ध  अथवा लाचार की सहायता उनके सामर्थ्य को देखकर करें....