शनिवार, 17 सितंबर 2016

लेखन के अपने अभिनय.....

लेखक अपनी मर्जी से तथ्यों को तोड़ता मरोड़ता है ही कहानी को अपने मन मुताबिक लिख पाने के लिए !
एक पहलू यह है कि कई लेखकों को देखा है जो वो लिखते है , वो स्वयं हैं नहीं ...इसलिए मेरा तर्क होता है कि यह कत्तई आवश्यक नहीं कि लेखक के आचरण का असर उसके लेखन पर भी हो ...
दूसरा पहलू देखे तो कहीं न कही लेखक उस जैसा ही हो जाना चाहता है , जो वह लिखता है ! जैसा वह नहीं है ,वैसा नहीं हो पाने की पीड़ा में वह वही रचता है जो वह हो जाना चाहता है ...
यही हमारी आँख भी करती है ...कई बार वही दिखाती है जो हम देखना चाह्ते हैं !
सकारत्मक पक्ष यह भी है कि मुस्कुराने का अभिनय करते- करते मुस्कराहट सच्ची हो जाती है !

अभिनय की भी अनगिनत परतें होती हैं।  हो सकता है जो आपको सच्चा /तेजस्वी नज़र आ रहा हो उसके व्यक्तित्व के छिलके किसी अन्य के सामने उधड़े हुए हों।  भारत का दिन अन्य महाद्वीपों में रात भी हो सकता है !
व्यक्ति के सापेक्ष भी विचार /अनुभव बनते बिगड़ते हैं और यह लेखन में भी दृष्टिगोचर होता है।

सौम्य विचार लिखते लिखते मैं अपने मनोबल को मजबूत करता रहा हूँ। जैसे निरंतर के व्यायाम से आपका शरीर स्वस्थ और सुदृढ़ होते जाता है ठीक वैसे ही वैचारिक अभ्यास से आपका मनोबल भी सुदृढ़ होते जाता है। (हंसराज सुज्ञ)

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

देहरी के अक्षांश पर..... डॉ. मोनिका शर्मा

काव्य संकलन - देहरी के अक्षांश पर
डॉ. मोनिका शर्मा


देहरी घर के मुख्य द्वार पर बनी हुई थोड़ी सी ऊँची नाममात्र की दीवार जो घर और बाहर की दुनिया के बीच की स्पष्ट विभाजक रेखा प्रतीत होती रही है .
उस देहरी का पूजन कर उसके मान मर्यादा सम्मान की रक्षा का प्रण ले  बेटी घर से विदा होती है तो वही इसी प्रकार बहू का भी आगमन होता है .
 वह एक छोटी सी दीवार किस प्रकार घर की मान मर्यादा की प्रतीक हुई विमर्श का यह विषय भिन्न हो सकता है मगर एक आशय यह रहा होगा कि जिस तरह
यह छोटी सी दिवार घर के भीतर धूल , मिटटी,  कूड़ा करकट के प्रवेश को रोक कर घर के पर्यावरण को स्वच्छ शुद्ध बनाये रखती है . इसी प्रकार स्त्री भी परायेपन को बाहर त्याग कर भीतर प्रवेश करे और घर आँगन का मानसिक पर्यावरण भी विशुद्ध बना रहे . हालांकि अब मकानों में इस प्रकार की देहरियों  का निर्माण नहीं होता मगर स्त्रियों के मन में यह देहरी भीतर तक पैठी हुई है . आधुनिक होती स्त्रियों के बीच भी देहरी का पारंपरिक अपनापन कहीं लुप्त नहीं हुआ है .
डॉ मोनिका शर्मा के काव्य संकलन "देहरी के अक्षांश पर " में  आधुनिकता में इसी पारम्परिकता का समावेश स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है .
इस संकलन की कविताओं में आधुनिक होती स्त्रियों की भिन्न मानसिक और सामजिक स्थितियों के बीच भी  पारम्परिक संस्कारों की स्पष्ट झलक बार बार
 दिखती है . वह जहाँ परम्परा के नाम पर सींखचों अथवा खांचों में बंधी नहीं रहना चाहती और वहीँ आधुनिकता के नाम पर प्रत्येक परम्परा को ठोकर मारकर उसे आउटडेटेड भी नहीं बनाना चाहती .
 अपने विवेक के अधीन वह स्वस्थ परम्पराओं की महत्ता को भी समझती है .
वह अपनी जिम्मेदारियां कर्तव्य से वाकिफ़ है. ताकीद सिर्फ यह है कि उसके अधिकारों और महत्वाकांक्षाओं को भी समझा जाए . अपने मन की उथलपुथल, आवेगों , आकाँक्षाओं को समझाने अथवा शब्द देने का प्रयास ही यह काव्य संकलन है .
 मोनिका की कविताओं में यदि शिकायत भी हो तो उसमें अवमानना नहीं है . किसी भी कविता में देहरी में बाँध दिए जाने की विवशता नहीं है विद्रोह नही है .
उनका शांत सहज और धैर्यवान व्यक्तित्व /चरित्र उनकी कविताओं में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है .
हमारे समय की स्त्री एक बदलाव के दौर से गुजर रही है . बदलते समय की करवट या यूँ कहों की बदलाव की प्रसव पीड़ा झेल रही है . वह विरासत में मिले संस्कारों को देहरी का  अभिमान भले ही मानती हो . उसे देहरी के भीतर अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए अपने वजूद और आत्मसम्मान को भी बरकरार रखने की  चाहत भी  है.
देहरी के भीतर रहना उसकी मजबूरी नहीं जिम्मेदारी है तो वह यह सुनना भी पसंद नहीं करती कि दिन भर घर में करते क्या हो . परिवार के व्यक्तित्व को ढालने के क्रम में स्वयं के व्यक्तित्व के उपेक्षित न रह जाने के लिए सतत प्रयत्नशील है . गृहिणी गृह की धुरी है और उसके पैर से बंधी अदृश्य रस्सी का विस्तार उतना चाहती है जितना वह फैला सके . वह कहती है सूत्रधार हूँ सहायिका भी . इनकी कविताओं की गृहिणी कुछ उपेक्षित अनुभव करने के बावजूद जानती है कि उसकी स्पर्श चिकित्सा का मोल किसी भी दवा से कम नहीं है और इस पर उसे अभिमान है , आत्मगर्व है. वह जानती है कि दवा का मूल्य चुकाया जा सकता है मगर चिकित्सा के साथ जिस प्रेम स्नेह दुआ अपनेपन की आवश्यकता है वह उसके ही वश का है . उसका मोल मूल्य से नहीं चुकाया जा सकता है .
गुसलखाने में स्त्रियों के निजी संसार में आत्ममुग्धा है तो अपने लिए चुपचाप बहा देने वाले आंसुओं का एक कोना भी है
उनकी कविताओं में स्त्री अभिनय प्रवीण है कि व्यंग्य बाण सहकर मुस्कुरा सकती है ,, आत्मा के रुदन को ठहाकों और उत्सव में दबा सकती है और यह सब कर पाने/  सह पाने की अभिव्यक्ति में अपेक्षा है उपेक्षा नहीं .

संग्रह में माँ से जुडी उनकी कविताएँ भी प्रभावित करती है . मेरी पसंद के तौर पर मुझे यह कविता बहुत ही दिल के करीब लगी
." माँ ने मेरी ओढनी के गोटे में टांक दिए संस्कार और समझ" .
आभासी दुनिया में सबकुछ उगल देने की प्रवृति मगर भीतर फिर भी अकेलापन रह जाने के भाव को भी चेताती हैं सावधान करती है .
कुल मिलाकर उनकी एक स्त्री विशेषतः गृहिणी के प्रत्येक  मनोभाव को स्थान मिला है और वे अपनी अभिव्यक्ति में सफल रही हैं .
गृहिणी होने के साधारण में असाधारण होने का भाव मुझे मोह लेता है . मेरे अपने ब्लॉग "ज्ञानवाणी " की टैग लाइन यही है इसलिए इन कविताओं से मैं स्वयं को भी आत्मसात करती हूँ . और मानती हूँ कि
मुझसी बहुत सी गृहिणियां इन कविताओं से स्वयं  संबद्ध और अभिव्यक्त महसूस करेंगे और यही कवयित्री की बहुत बड़ी सफलता है.