गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

भीतर भरते रहना प्रेम का ……




उस दिन किस बारीकी से का वह बंद कोना छुआ उसने  कि कोई सोया दर्द फिर से जाग उठा ...जब उसने  कहा कि कुछ घाव जो सूखे बिना भर जाते हैं , जीवन भर तकलीफ देते हैं और वह अपने पैरों की एड़ी में छिपा -सा हल्का निशान सहला बैठी . 
उम्र के किस बीते पल में उस स्थान पर वह घाव हुआ था , कभी ललाई लिए एड़ी से बहता रक्त तो कभी पीले जख्म से रिसता मवाद...हर कुछ दिनों पर अपनी सूरत बदल लेता था . आम जख्म ही होता तो कोई इतना समय , इतने महीने लगता उसे ठीक होने में !...
वह तो नासूर ही हो गया था . डॉक्टर ने कह दिया कुछ देर और करते तो पैर ही काटना पड़ता ... ऑपरेशन टेबल पर बैठी वह रोई नहीं . बड़ी शांति से देखती रही डॉक्टर किस तरह उस जख्म को कैंची लगी रूई से साफ़ करते थे . मवाद बह कर जमा होता रहा वही नीचे एक बर्तन में.  वह सिर्फ चुपचाप देखती रही . क्या दर्द नहीं हुआ होगा उसे ! होता तो है ही मगर वह नहीं रोई . सिर्फ देखती रही और डॉक्टर ने कह दिया बहुत हिम्मती है बच्ची ...और वह सोचती थी कोई निश्चेतक है जो दर्द को इस तरह गुजर जाने देता है ....आज वहां घाव नहीं है .देखने पर कुछ नजर नहीं आता मगर भीतर खुजली चलने पर वह हाथ से टटोलकर एड़ी के उस खोखले स्थान को महसूस करती है , उसी जख्म को भी!
और वह सोचती रही उन निशानों को , उन जख्मों को , जिनके कोई हल्के से निशान भी ऊपर से नजर नहीं आते थे ....वह जो उसकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था ...बिछड़ा था उससे तब जब्त किया था उसने . जीवन की रीत सा ही तो हुआ था मिलना और बिछड़ना भी ...

क्यों किया था उसने ऐसा ! समन्दर को कितनी लहरों ने छुआ होता ,क्या फर्क पड़ता है ...फिर उस एक लहर से ही कैसा शिकवा !! 
अपने हिस्से का आसमान तो उसने भी छुआ था . फिर क्या था जो उसके भीतर ऐसा टूटा , बिना निशान भी जिसका दर्द एड़ी में हुए उस जख्म जैसा ही ....क्यों !!!

उसने स्वयं को शाबासी दी . एड़ी  के मवाद जैसा कुछ निकला तो नहीं मगर जाने कौन सा निश्चेतक मस्तिष्क का वह हिस्सा शून्य कर गया कि दर्द हँसता- सा गुजर गया ...और अनजाने में उसने प्रेम के लिए अपने ह्रदय के कपाट हमेशा के लिए बंद कर दिए ... 
वह प्रश्न अनुत्तरित ...वह जख्म अनछुआ ही रह जाता , जो उस दिन उसने कहा नहीं होता ...जख्मों का बिना सूखे भर जाना ठीक नहीं होता ....किस खूबी से छुआ था उसने बिना निशान वाले उस जख्म को !

उसने जोर से आँखें बंद कर ली . चीखी -चिल्लाई परंतु वह रहा शांत -सा उसकी अंगुली पकड़े उसे आईने के सामने खड़ा कर गया ...
देखो ! यह तुम हो जिसके भय से चीख कर अपनी आँखें बंद कर लेती हो .  उसने उसे वह सब  भी.दिखाया जो वह नहीं देखना चाहती थी .... वह भौंचक थी . यह आईने में उसका ही अक्श था !
जिस प्रेम को वह दूसरों में ढूंढती थी . नहीं पाने पर झुंझलाती थी , शिकायत करती थी , रोती थी , चीखती थी , वह स्वयं उसमे ही नहीं था . या कहूँ खोया नहीं था , सूख गया था....जैसे बहते झरने के स्रोत पर कोई पत्थर की शिला अड़ गयी हो ... 
अब निर्झरणी- सा बहने लगा उसकी अपनी पलकों से ...
आह! प्रेम ... तुम मुझमे ही छिपे थे . मैंने तुम्हे कहाँ नहीं ढूँढा !

और दे गया सन्देश ...मैं सूरज अपनी धूप सबके लिए एक सी ही तो बिखेरता हूँ . कोई पौधा पत्थरों की ओट बना कर मुरझा जाए तो मेरा क्या कुसूर....
मैं ही हूँ सागर .  मेरी लहरों के साथ साफ़ धुली चमकदार बालू रेत पर सुन्दर  सीपियाँ  छोड़ देता हूँ किनारे . सड़ा- गला सब बहा ले जाता हूँ .  मुझ जैसी गहराई , विशालता तुममे में ना सही पर  तुम हो प्रेम की कलकल बहती नदिया -सी , कभी शांत , कभी हलचल मचाती ...
 सड़े गले पत्ते , सब अवांछित किनारे पर आ टिकेंगे . मत सोचो कि किसने क्या कहा , क्या समझा जबकि तुम समझती हो तुम क्या हो! 
 तो किसी को समझाने की कोशिश मत करो .उन्हें स्वयं. समझने दो....
नदी को नाला समझने वालों की अपनी किस्मत . उनके हिस्से में तलछट ही है !
जो तुमसे नफरत करते हैं , तुम जैसा ही बनना चाहते हैं! ....
क्या- क्या नहीं समझाया उसने . कभी प्यार से , कभी गुस्से से , कभी डांट कर, कभी गले लगा कर !
और वह भरती गयी भीतर से , प्रेम से ! 
उसने पाया प्रेम कहीं बाहर नहीं है . उसमें ही है . चीखना , झूठी मूठी शिकायत जैसी शरारतें करना छोड़ा नहीं है अभी उसने परंतु वह  जानती है  प्रेम कहीं और नहीं है . स्वयं उसके भीतर ही है ! 
जीवन बगिया की महकती क्यारी की खुशबू -सा प्रेम ....कस्तूरी मृग की नाभि- सा स्वयं उसमें ही है!