शनिवार, 1 मार्च 2014

किसी ने कहा था - अपना हाथ जगन्नाथ !!


रे ईर्ष्या! तू न गयी मन से रे . मन का क्या कहें , जितना समझाए कोई की मद , मोह , ईर्ष्या , लालच के फेर में मत पड़ रे बन्दे , मगर मन पर किसका अंकुश है . उस पर स्वयं ईश्वर की भी नहीं चलती . उस ईश्वर के भय के मारे व्यक्ति कोई ऐसा कार्य नहीं करे जो उसके मोक्ष में बाधक हो , मगर व्यक्ति अपने मन में क्या करे , ईश्वर भी ना ताड़ सके . वैसे भी बाबा तुलसीदास कहते भये कि कलियुग में मानसिक पाप का दोष नहीं लगता . सो कभी कभार हो जाने वाली मानसिक ईर्ष्या का सुख ले लेवें हम भी !
सखिन लोग बड़ा माथ जोड़ जोड़ कर बतियाती है हमारी कामवाली बाई ऐसी , उसकी कामवाली बाई ऐसी . इ बात और है की उसी समय कही किसी गली में कामवाली बायीं भी माथा जोड़े करती होंगी , हमारी मालकिन ऐसी ,हमारी मालकिन वैसी ! जो हो सो हो , ऐसी निंदा के लिए एक कामवाली बाई का होना भी तो जरूरी है , और वो तो हमरे पास है नहीं !

मायके में हमेशा कामवाली बाइयों को काम करते देखा या फिर घर के काम में सहयोग करने वाले छोटे बच्चों को ,मगर ससुरारी आये तो पता चला की हियाँ सब लोग को अपने हाथ से ही काम करने की आदत है . यह सिर्फ गिने चुने घरों की बात नहीं थी , मध्यमवर्गीय तो क्या , बहुत से उच्चवर्गीय परिवारों में भी लोगो को स्वयम ही गृह कार्य करते पाया . सबसे ज्यादा दिक्कत तो हुई बर्तन साफ़ करने में , जिठानी जी बोले इनको और मलो तो राख से सने हाथों की दुर्गति देख कई बार तो मन किया उठा कर बर्तन फेंक ही दें किसी के सर पर. उस पर सासू माँ की ताकीद कि अपने जूठे बर्तन अपने से किसी बड़े को छूने न दे ,  वैसे नई बहू के खांचे में फिट बैठने के लिए काम तो सारे मुस्कुराते हुए ही करते रहे :) . मगर अब तो ऐसी आदत हो गयी है कि बिना उचित कारण के यदि कामवाली बाई के भरोसे ही रहना पड़े तो जीना दूभर हो जाए . लोग विदेशियों की शानशौकत भरी जिंदगी का वास्ता बड़े मजे से देते हैं , मगर भूल जाते हैं कि वहां लोग अक्सर अपने कार्य स्वयं ही करते हैं . फर्क ये है कि वहां घर का प्रत्येक सदस्य अपना योगदान देता है , भारतीयों की तरह पूरी जिम्मदारी सिर्फ गृहिणी पर नहीं छोड़ी जाती .

पिछले वर्ष अपने शहर जाने का मौका मिला तो एक सहेली के घर जाने पर सीढियों में जूठे बर्तनो का टब स्वागत करते मिला . पता चला की बाई दस और ग्यारह के बीच में आएगी , तब तक रात के जूठे बर्तन कौन मांजे . अन्दर से नए बर्तन निकाले जाते रहे ,, जिन्हें साथ के साथ धो पोंछ कर रखा गया . हमने पुछा भाई ये माजरा क्या है , तो बोले कि एक्स्ट्रा बर्तन होने पर बाई बड़ी किटकिट करती है . अब मेहमान के सामने ये बात आ जाए तो अगला पहले ही सोच समझ कर जाए या फिर यह कोशिश करे की उनके कारण ज्यादा बर्तन जूठे न हों . हमको भी याद आया एक दिन मायके में बाई की किटकिट पर ही लड़ पड़े हम कि क्या शादी के बाद मायके आना ही छोड़ दे तुम्हारे कारण !
हालाँकि कुछ समय के लिए गृह सेवक /सेविका की सुविधा का उपयोग करना भी पड़ा . उस  बच्चे को माँ बाप ने भेज दिया शहर में अच्छी जिंदगी के लोभ में . अपनी पढाई के साथ उसे पढ़ाने बैठाती मगर उसकी रूचि पाककला में ही अधिक रही कि किसी अच्छे ढाबे या होटल या किसी बड़े घर में काम मिल जाये . उस समय खीझ होती थी , मगर अब लगता है कि व्यावहारिकता का तकाजा उसका यही रहा होगा . भूखे को दो रोटी से अधिक क्या सूझता है /सूझेगा ! 
 तो बात हो रही है काम वाली बाइयों की . अरे नहीं, बात है शायद हम हिन्दुस्तानियों के आरामपसंदगी की . यदि भारत में  पुरुषों से गृह कार्य में सहयोग करने को कहा जाए तो झट कह दे , काम वाली बाई क्यों नहीं बुला लेती . हालाँकि मैं क्षेत्रीयता पर बात करने से परहेज करती हूँ मगर  बिहार और उत्तरप्रदेश के मुकाबले राजस्थान में पुरुष वर्ग गृहकार्य में हाथ बंटाने में संकोच नहीं करता. जयपुर के शहरी इलाके में बहुत कम घरों को काम वाली बाइओं के दर्शन नसीब हो पाते थे , चारदीवारी से बाहर फैले क्षेत्र में जहाँ बड़ी संख्या में दूसरे प्रदेशों से आये लोग निवास करते हैं , विशेष कर बिहार , बंगाल और उत्तरप्रदेश से , उनके घरों में अक्सर कामवाली बाईं ही संभालती है घर और इनमे बड़ी संख्या शरणार्थी बांग्लादेशियों की लगती है . यह सिर्फ मेरा अनुमान हो सकता है , संभव है की ये औरतें पश्चिम बंगाल से काम की तलाश में यहाँ आई हो . 
सोचती हूँ कि राजस्थान जैसे अपेक्षाकृत सूखे स्थानों पर मध्यमवर्गीय परिवारों में घर घर काम करने वाले बाशिंदों की कमी का कारण क्या रहा होगा !! यहाँ लोग अधिक स्वाभिमानी है , या श्रम का उचित पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं या फिर उत्तर भारत जैसा आय वर्ग विभाजन नहीं है !!
इसके उलट उत्तर प्रदेश , बिहार और बंगाल जैसे उपजाऊ इलाकों में खेती एक बड़ा उद्योग है , जहाँ श्रमिक वर्ग की आवश्यकता अधिक है , वहां से ये लोग घर बदर हुए यहाँ श्रमिक बन जीवन यापन करने को क्यों मजबूर है ! 
शायद उन प्रदेशों में श्रमिकों को उचित मानदेय अथवा सम्मान नहीं मिल पाता. कृपया जाति विशेष की दयनीय स्थिति का तकाजा मत दीजियेगा क्योंकि यहाँ बसने वाले श्रमिकों ,  कामगारों की बड़ी संख्या तथाकथित उच्च जातियों की है !
किसी  भी बहाने से कुछ लोगो की रोजी रोटी चलती है तो सही भी है . श्रम सहित जीवन यापन उस जीवन से हर प्रकार श्रेष्ठ है जहाँ गुलामी में सौ पकवान है !