बुधवार, 17 अप्रैल 2013

बातें है बातों का क्या ....


संवेदनाओं को झकझोरने वाली घटनाएँ इन दिनों आम है . ट्रैफिक  सिग्नलों पर लगे छिपे कैमरे आम जनता की संवेदनहीनता को बड़ी मुस्तैदी से रिकोर्ड कर उनका चेहरा बेनकाब करने में जुटे हैं  जैसा की अभी कुछ दिन पहले जयपुर में  एक दुर्घटना में घायल परिवार से राह से  गुजरते लोगों की संवेदनहीनता को उजागर किया . सुसंस्कृत और परम्पराओं से गहरे जुड़े होने वाले इस शहर की संकल्पना को जबरदस्त झटका लगा  . जागरूक नागरिक ठगा सा खड़ा सोचता ही रहा है कि आखिर हमारे अपने इस शहर के लोगों को हुआ क्या है.  संवेदनहीनता का ग्रहण  लगा कैसे !
एक भागमभाग लगी है इन दिनों . सबको चलते जाना है जैसे भीड़ का हिस्सा बनकर . कौन राह में खो गया , किसी को खबर नहीं और  ना ही जानने की उत्सुकता .   जब तक हमारे काम का है  तब तक पूछ है उसके बाद जैसे कोई पहचान ही नहीं ...गीत याद आता है " मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं , जा रहे हैं ऐसे जैसे हमें जानते नहीं ". इससे भी बढ़ कर यह की जिससे मतलब ही नहीं , उसे पहचाने क्यों !! 
कब घर कर गया यह चरित्र हम सबमें,  हमारे शहर  में , पता ही नहीं चला ....

मैं लौटती हूँ पीछे .  ज्यादा नहीं यही कोई लगभग दस वर्ष पहले ही घर से ऑफिस की डगर पर पतिदेव के स्कूटर को पीछे से टक्कर मारी जीप ने .  स्कूटर सहित गिरे तो बाएं पैर में वहीँ फ्रैक्चर नजर आया .  आस पास खड़े लोगो में से एक सहृदय ने उनके स्कूटर पर बैठकर घर छोड़ा और गेट से अन्दर तक गोद में उठा कर छोड़ कर गया . इस घटना से भी कई वर्षों  पहले  एक दिन राह चलते पुरानी  मोपेड में साड़ी अटकी और सँभालते हुए भी  आखिर गिरने से बचे नहीं . गोद में छह महीने की बच्ची साथ में , पटलियों में से साड़ी तार -तार . आस पास के घरों से ही एक महिला सहारा देकर अपने घर ले गयी .  अपनी साड़ी पहनने को दी .अजनबी होने के बावजूद उसे हिचक नहीं थी कि  पता नहीं मैं साड़ी वापस करुँगी भी या नहीं . 
खट्टे- मीठे , अच्छे- बुरे अनुभवों का सार ही है ये जीवन , एक पल में ही आशा टूटती है तो कोई दूसरा पल आस बंधाता  भी  मगर टूटन का समय और अनुभव अधिक लम्बा हो तो भीतर एक शून्य भरता जाता है ...
कैसे बदल गया यह  माहौल , यूँ ही तो नहीं ...
कुछ घाव कहीं तो लगे होंगे जिसने भीतर की करुणा के कलकल बहते स्त्रोत को सोख लिया . प्रशासनिक , सामाजिक ,आर्थिक मजबूरियां लग गयी है हमारे कोमल स्वभाव , परदुखकातरता को दीमक की तरह ...

शब्दों में लिख कर , बोल कर उस घटना की संवेदनहीनता पर खूब चर्चा कर लें मगर कैसे ...

क्या राह पड़े किसी राहगीर को घायल देखकर हम रुक पाते हैं ....रुकना चाहे तो याद आ जाते है वे किस्से  कि  रुके थे कुछ लोग जो अपना पर्स , घड़ियाँ , गंवाने के अलावा  मारपीट के भी  शिकार हुए . अविश्वास ही भारी तारी रहता है हर समय !

बदल गया है ये जहाँ ..हो हल्ला कर अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने वालों का मजमा लगा होगा. वास्तव में भले किसी गिरे हुए को सिर्फ हाथ पकड़कर भी ना उठाया होगा  मगर नाम लाभ  लेने को तैयार ...प्रेम , करुणा , संवेदना पर सबसे अधिक चर्चा करने वाले वही जिन्होंने कभी कुछ किया नहीं हो  !
  
स्वयं द्वारा कभी की गयी इस  अनदेखी पर ग्लानि हो तो बात समझ आती है वर्ना तो सिर्फ शब्द है , बातें है...
बातें है बातों  का क्या !!

31 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ घाव कही तो लगे होंगे जिसने भीतर की करुणा के कलकल बहते स्त्रोत को सोख लिया , प्रशासनिक , सामाजिक ,आर्थिक मजबूरियां लग गयी है हमारे कोमल स्वाभाव , परदुखकातरता को दीमक की तरह ...
    अविश्वास ही भारी तारी रहता है हर समय !
    !!
    आपके लिखे पर कमेंट के लिए कुछ शब्द नहीं मिले ....
    !!

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  2. दुनिया में सभी तरह के लोग है, कुछ नि:स्वार्थ सहायता करने वाले तो कुछ कफ़न चोर। मेरा साथ दुर्घटना हुई थी, मेरे द्स हजार के मोबाईल को लेकर कोई रफ़ुचक्कर हो गया। मोबाईल न होने से मैं 12 बजे रात को किसी को फ़ोन भी नहीं कर सकता था और सामान्य शहरी पुलिस के झंझट में नहीं पड़ने के कारण अनदेखी करके चला जाता है, भले की दुर्घटनाग्रस्त की जान चली जाए।

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  3. दुनिया में सभी तरह के लोग हैं
    क्या पता उनमे से कौन मिले हमें

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  4. अभी पिछले दिनों आपके जयपुर के अमित शर्मा जी के चाचा के साथ भयंकर सडक हादसा हुआ था.कार इस तरह क्षतिग्रस्त कि उसमें बचने की कोई सम्भावना नहीं. पिछे आ रही कार रूकी, उन्होने चचा को कार से निकाला, साथ के लाखों रूपये सडक पर बिखरे थे,इक्कट्ठा किया और चाचा को अस्पताल पहूंचाया,परिवार को सूचना दी, रूपए सौपे और फिर अपने घर लौटे.

    बिलकुल ऐसा नहीँ है कि सम्वेदनाएँ सभी में मृतप्रायः हो चुकि है. किंतु सम्वेदनाओँ को निभाना जटील से जटील होता जा रहा है.

    आप सही कह रही है कि कि धूर्तों नें धूर्तता से सभी तरह की अनुकंपा का दोहन कर लिया है. और इससे अविश्वास के वातावरण का निर्माण हुआ है. लेकिन ठगी, स्वार्थ और अपनी दौड का अस्तित्व हमेशा रहेगा, उन्हे रोकने के उपाय नहीं है. समय का भोग, ठगे जाने की जानकारी आदि होने के उपरांत भी कोई मदद को दौडता है तभी तो इसे साहस कहते है.और वे विरले ही होते है.

    सम्वेदनशील सहायता को तत्पर रहते लोगों की प्रशंसा, असम्वेदनशील लोगों की आलोचना से लोगों में अच्छे कृत्य पर आस्था टिकी रहे, इतनी उपयोगीता तो है ही.

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  5. संवेदनशील लोग मदद को आते रहेंगे मगर असंवेदनशीलता जीतती नज़र आती है ...
    :(

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  6. स्थिति को सबने भयावह कर दिया है कि बेचैनी महसूस करते हुए भी लोग चल देते हैं .... सहारा देना यानि मुसीबत को बुलावा देना . और इसके जिम्मेदार सर्कार और समाज है -

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  7. स्वयं द्वारा कभी की गयी इस अनदेखी पर ग्लानि हो तो को बात समझ आती है , वर्ना तो सिर्फ शब्द है , बातें है...
    बातें है बातों का क्या !!
    बिल्‍कुल सच कहा आपने ....

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  8. हर तरह के लोग हैं इस दुनिया में, अभी पिछले ही दिनों दिल्ली में एक बहुत ही भीषण सड़क दुर्घटना हुई, हमने मदद के लिए फ़ौरन अपनी गाडी रुकवाई, पहुंचे तो तब तक लोग घायलों को उलट चुकी गाड़ियों में से बाहर निकाल चुके थे, पास ही खड़ी एक गाडी में उन्हें अस्पताल ले जाने का इंतजाम किया गया।

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  9. बस हम संवेदनशील बने रहें ..... बाकी तो बाते हैं बातों का क्या ...

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  10. एक आम आदमी के व्यवहार और प्रशासन के प्रति विश्वास दोनों ही ज़रूरी हैं ऐसे मामलों में .........

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  11. ऐसा नहीं है कि संवेदनशीलता बिलकुल ही समाप्त हो गयी है ! अक्सर सड़क दुर्घटनाओं में शहरी व पुलिस की सहायता पहुँचने से पहले आस पास के क्षेत्र के ग्रामीण लोग ही सहायता के लिये सबसे पहले पहुँचते हैं ! ये वे लोग है जिन्हें अपनी परदुख कातरता की दुन्दुभी बजाने की आवश्यकता महसूस नहीं होती ! हाँ शहरों में रहने वाले लोग अपेक्षाकृत अधिक स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं इसलिए संवेदनहीनता उनके मानस पर अधिक हावी दिखाई देती है आजकल ! फिर कुछ दोष हमारे शासन तंत्र का भी है जो मदद करने वालों को शाबाशी देने के स्थान पर इतना परेशान कर डालता है कि सभी लोग तौबा करने लगते हैं ! किसके पास इतनी फुर्सत है कि अपने घर का चूल्हा बुझा कर औरों का घर रौशन करे ! सार्थक पोस्ट !

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  12. vyaktigat rup sae mae jo kar saktii hun hameshaa karti hun aur niswaarth bhav sae nahin balki is liyae karti hun ki kabhie maere kisi apnae ko jarurat ho to uskae liyae bhi koi kar dae

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  13. हर तरह के लोग हैं समाज में ... पर अधिकतर देखने में आता है की संवेदनाएं कम हो रही हैं ... दूसरों के चक्कर में कोई पढ़ना नहीं चाहता .... अपने स्वार्थ के चलते ... ओर ये समस्या शहरों में कुछ ज्यादा है ...

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  14. सही कहा बातें हैं बातों का क्या ………………जब तक उन पर अमल ना किया जाये । संवेदनशीलता और असंवेदनशीलता के बीच की लकीर अब खाई मे तब्दील होती जा रही है जिसका नज़ारा हम सभी देख रहे हैं।

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  15. आज के संघर्षपूर्ण जीवन में संवेदनशीलता कम होती जा रही है, तभी ऐसी घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं.

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  16. आप भले तो जग भला. बस हममें बची रहे संवेदनशीलता.बाकी तो दुनिया में हर तरह के लोग होते हैं.

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  17. बेशक हमारी तत्परता से किसी की जान बचाई जा सकती है। लेकिन सडकों पर तमाशबीन ज्यादा नज़र आते हैं , मेहरबान कम।
    पब्लिक एपेथी कायम है।

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  18. संवेदनशीलता बिलकुल ही समाप्त हो गयी है ...
    जब तक हमारे काम का है , तब तक पूछ , उसके बाद जैसे कोई पहचान ही नहीं ... " मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं , जा रहे हैं ऐसे जैसे हमें जानते नहीं ".

    इस तरह के लोग हैं जयपुर में .....स्वार्थी और आत्मकेंद्रित ....

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  19. मैं भी विचलित हुआ था -यह आपका शहर है यह सोचकर और भी !

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  20. बहुत ही असमंजस की स्थिति है। फिर भी हर एक अपना दायित्व निभाये, यही सोचा, कहा और किया जा सकता है।

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  21. सहमत हूँ कि सिर्फ़ शब्द-चर्चा से कुछ नहीं होगा लेकिन ऐसी चर्चा न होना इस संवेदनहीनता को और बढ़ायेगा इसलिये इन बातों पर चर्चा जरूर होनी चाहिये।

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  22. यह मसला संवेदनशीलता के समाप्‍त होने का नहीं लग रहा है। उस सुरंग में किसी के लिए रूकना शायद सम्‍भव नहीं रहा हो।

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  23. लगता है संवेदनशीलता शब्द ही बाकी नही बचा है.

    रामराम.

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  24. simply superb.
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  25. दोनों ही पहलू को उजागर किया है आपने.....पर बुरे के दर से भलाई को छोड़ा तो नहीं जा सकता.......एक नर सदा रखना चैये हम सबको.......हम बदलेंगे युग बदलेगा।

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