गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

म्हारा सोलह दिन को चालो र ईसर ले चाल्यो गणगौर ...


त्योहारों का इंतज़ार हम जहाँ पूरी बेसब्री से वर्ष भर करते हैं , वही इनके जाने के बाद एक अजीब सा खालीपन या सूनापन लगने लगता है ...और जब त्यौहार मनाने की अवधि अठारह - उन्नीस दिन तक रही हो तो इसके बाद का खाली वक़्त और अधिक अखरता है ...

पिछले दिनों गणगौर पर्व की अठारह दिनों की पूजा के बाद हमें भी कुछ ऐसा ही लगा ...सावन की तीज से शुरू होने वाले त्यौहार चैत्र की गणगौर के बाद थोडा अधिक विराम लेते हैं ...रोज 4-5 घंटे सहेलियों(हर उम्र की ) के साथ बिताना और घर के कई कामों को त्योहारी व्यस्तता के कारण टालते हुए त्यौहार के बीत जाने का इंतज़ार , मगर फिर उसके बाद का सूनापन एक उदासी-सी भरता है कुछ समय के लिए ..


होली के दूसरे दिन (धुलंडी )से प्रारंभ हुई मुख्य गणगौर पूजा चैत्र तृतीया ६अप्रैल की गयी तथा इसके दूसरे दिन गणगौर के विसर्जन से " तीज त्योहार बावड़ी ले डूबी गणगौर ' से संपन्न हुई ...

विवाह के पहले वर्ष में नवविवाहित बेटियां गणगौर पूजन के लिए अपने मायके जाती हैं और वहां गणगौर की स्थापना कर पूरे सोलह दिन तक पूजन करती हैं , और साथ देने के लिए सखी सहेलियां और आस पड़ोस की महिलाएं भी उसके साथ पूजन करती हैं ...विवाह के पहले वर्ष में यदि नववधू मायके नहीं जा सके तो ससुराल में ही १६ दिन तक उसे गणगौर का पूजन करना होता है ..पहली बार १६ दिन तक पूजन के बाद हर वर्ष इस लम्बी अवधि तक गणगौर पूजन की कोई बाध्यता नहीं होती ...ये १६ दिन बहुत ख़ास हो जाते हैं क्योंकि लम्बे समय तक चलनी वाली पूजन अवधि के कारण महिलाओं के लिए हर वर्ष पूरे सोलह दिन की पूजा संभव नहीं हो पाती है ...

शीतलाष्टमी के बाद पर्व की रौनक और बढ़ जाती है ...इस दिन जंवारे , हिंडोले आदि की स्थापना के साथ गणगौर को वस्त्र आभूषणों से सजाया जाता है ...तत्पश्चात प्रत्येक दिन गणगौर का बिन्दोरा पूजन करने वाली लड़कियों या महिलाओं के घर रखा जाता है ...गणगौर के पारंपरिक गीतों के साथ गणगौर तथा पूजन कर्ताओं का चाय नाश्ते आदि के साथ आतिथ्य सत्कार किया जाता है ...

हमारी लोक संस्कृति में गीत/संगीत रचे बसे हैं ...महानगरीय संस्कृति में भी ये गीत सामाजिकता निभाने और परिचय बढ़ाने में अनूठी मदद करते हैं , क्योंकि इन गीतों में उपस्थित कन्याओं और महिलाओं के नाम के साथ पिता , पति, ससुर , भाई , बेटा/ बेटी आदि के नाम भी लिए जाते हैं ...इन गीतों के माध्यम से वर्षों तक एक दूसरे के नाम से अपिरिचित लोंग पूरे परिवार के नामों से परिचित हो जाते हैं ..

गणगौर पूजन को जाते अपने पति से मनुहार करती हैं की उन्हें पूजन के लिए जाने दे , उनकी सहेलियां बाट देख रही हैं
भंवर म्हणे पूजन दयों गिन्गौर , म्हारी सहेलियां जोवे बाट ...

पूजन के लिए दूब और जल का कलश भर लाने से ...महिलाएं दूब लेने जाती हैं तो माली/मालन का द्वार खटखटाते हुए उसे दूब देने को कहती हैं ,
बाड़ी वाला बाड़ी खोल , म्हे आया छ दोब न ..
माली/मालन पहले उनसे उनके पिता/ससुर का नाम पूछता है ...
कुण जी री बेटी छो ,कुणजी री बहू छो ...

जल का पात्र भरते हुए वे कहती हैं ......
उंचों चंवरो चौखुटों , जल जमना को नीर भराओ जी , जठा पिता /पति का नाम संपरिया , वांकी रानियाँ /बेटियां ना गौर पूजाओजी...

दूब लेकर लौटती हुई वे गुनगुनाती हैं ...
गौर ए गणगौर माता खोल ए किंवाड़ी, बारे ऊबी थाने पूजन हाळी ...
हे गणगौर माता , किंवार खोल दे , हम पूजन करने वाली बाहर खड़ी हैं ..

गणगौर का पूजन करते हुई वे गाती हैं ...
गोर गोर गणपति , ईसर पूजे पार्वती ...



पूजन करती हुई बहू बेटियों को टोकती महिलाएं जंवारा गीत गाती हैं ...
म्हारा हरया ए जंवारा की जंवारा म्हारा पीला पड़ गया
गोरियों सीचों जतन से , की लाम्बा तीखा सरस बढे

छोटे से कान्हुड़े को झूला झुलाती गाती हैं ...
चंपा की डाळ हिंडोलो जी घाल्यो घाल्यो छ रेशम डोर जी
म्हे हिंडो घाल्यो ...

हर सुहागिन अपने लिए अनमोल चुंदरी की फरमाईश करती हुए गाती हैं ...उसके लिए हरे पल्ले और कसूमल (गहरा लाल रंग )की चुंदरी ले कर आये ..
बाई सा र बीरा , थे तो जयपुर जा जो जी , आता तो ल्याजो तारा की चुन्दडी ...जांका हरया- हरया पल्ला जी , कसूमल रंग की तारा की चुंदरी...

अनगिनत सुमधुर लोक गीत हैं जो इस अवसर पर गाये जाते हैं....
इन लोकगीतों में स्त्रियों को भी पूरी तवज्जो मिलती है , कुछेक ही ऐसे अवसर होते हैं जिनमें वे अपने नाम से जाती हैं ...अपने नाम से अनचीन्ही सी फलाने की बहू , फलाने की माँ इन गीतों को गाते हुए अपने नाम भी लेती है ...
जैसे एक कांगासिया(कंघी ) गीत इस प्रकार है ...
म्हारी बाई (गीत गाने वाली महिलाओं के नाम ) का लाम्बा केस , कंगासियो बाई क सिरां चढ्यों जी राज
"कर ले बाई आरत्यों " मे भी इसी प्रकार महिलाओं के नाम जुड़ते हैं ...

लोकगीतों में महिलाओं के मन की भड़ास निकालने के पूरे अवसर मौजूद होते हैं ...परदे में रहने वाली जो बहुएं , सास -ससुर , देवर ननद आदि से तकरार नहीं कर सकती थी , इन गीतों के माध्यम से अपनी पूरी भड़ास निकल लेती थी ...सास , ननद आदि के पास सिर्फ मुस्कुरा कर रह जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता क्योंकि उसी समय वे स्वयम भी यही गीत गा रही होती हैं ...
गणगौर पूजन के समय कनेर के पत्ते से पूजन करती हुई वे गाती हैं ...
" गेले गेले सांप जाए , सुसराजी थांको बाप जाए "
" गेले गेले हिरनी जाए , सुसराजी थांकी परनी जाए "
" चूल्हा पाचे फिर उन्दरी , सासु जाने बहन सुंदरी "
"चूल्हा पाछ पांच पछेठा , सासू जाने म्हारा बेटा "
इनमे से कुछ शब्दों के अर्थ तो मुझ भी नहीं मालूम ... उपस्थित महिलाओं से संस्कृति से जुड़े कई रोचक आख्यान सुनने को मिल जाते हैं !

विभिन्न त्योहारों अथवा मांगलिक अवसरों पर विशेष प्रकार के पकवान और वेशभूषा राजस्थानी संस्कृति की अनूठी विशेषता है ...इसी प्रकार गणगौर के अवसर पर भी विशेष पकवान " गुणे" और घेवर बनाये जाते हैं .. ...आटे या मैदे के गुड अथवा चीनी की चाशनी पगे आठ या सोलह "गुणों" तथा घेवर ईसर गणगौर को भोग में अर्पित किये जाते हैं....

गुणे
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गणगौर विसर्जन के पल बड़े भावुक होते हैं ...महिलाएं भावुक होकर गीत गाते हुए उन्हें जंवारों सहित विसर्जन के लिए ले जाती हैं ...

म्हारा सोलह दिन को चालो रे इसर ले चाल्यो गणगौर ...
मैं तो बागां में फुन्दी खाती रे ईसर ले चल्यो गणगौर ...
मेरे सोलह दिनों की चहलपहल गणगौर को ईसर जी अपने साथ लिए जा रहे हैं ...

मैं तो बागां में फुन्दी खाती रे ईसर ले चल्यो गणगौर ...
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घरों में सादे तरीके से की गयी पूजा का समापन भी सादगी से होता है , मगर कई स्थानों पर बड़ी गणगौर स्थापित की जाती हैं , उन्हें बाकायदा ढोल नगाड़ों के साथ ले जाकर झील/ तालाब पर विसर्जित किया जाता है , मेला भी लगता है ...

जयपुर की गणगौर की शाही लवाजमे के साथ निकली सवारी देशी -विदेशी पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण होती है ...

15 टिप्‍पणियां:

  1. सांस्कृतिकता से सराबोर! नारियां न हो तो मानवता कितनी बेरंग हुयी होती ...नारी कंठ न होता तो कितनी ही लोक स्मृतियाँ लुप्त हो गयी होतीं .....नारी और नारी कंठ को सलाम !

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  2. यूँ गणगौर का त्यौहार हाडौ़ती में भी पूरे धूमधाम से होता है। पर जयपुर की बात कुछ और ही है। सुंदर आलेख के लिए आभार! हमारी सांस्कृतिक परंपराओं की जानकारी के लिए इस तरह के आलेखों का होना आवश्यक है।

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  3. अपने पंजाब मे ये रंग कहाँ मिलते हैं मेरे लिये नई जानकारी। धन्यवाद।

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  4. यह परम्परायें, संस्कृति को सदा पुष्ट करती आयीं हैं।

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  5. गणगौर की घणी-घणी बधाई..
    चोखी पोस्ट लगाई........राम राम

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  6. राजस्थान की लोक संस्कृति से परिचय अच्छा लगा ...उम्दा लेख

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  7. हमारे पर्व हमारी नीरस जिंदगी में रस घोलने का काम करते हैं । और राजस्थानी त्यौहारों के तो क्या कहने ।
    बहुत सुन्दर लगा गणगौर का पर्व ।

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  8. बहुत सुन्दर पोस्ट.
    परम्पराओं का हमेशा ही वैज्ञानिक और व्यावहारिक मतलब हुआ करता है और हमारे जीवन को सरल और स्वस्थ बनानेमें इनका बहुत योगदान होता है.
    काश ये परम्पराएँ चलती रहें.

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  9. बहुत ही रोचक तरीके से इस सुन्दर पर्व की चित्रमय जानकारी दी है
    पर इन तस्वीरों में तुम किधर हो??..बताना था,ना...हम तो बस अंदाजा लगाए जा रहे हैं.:)

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  10. बहुर ही रंगारंग प्रस्तुती |थोड़े से शब्दों का फेर पर भावनाए और उत्सव में काफी समानता है निमाड़ की गणगौर और राजस्थान की गणगौर में |
    अच्छी पोस्ट |

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  11. वाह वाणी जी वाह
    गीत भी और वाणी भी
    अति मनमोहक चित्र
    मैं देखने आया था
    कि तेताला पर चर्चा के
    बाद कितने साथी आए हैं
    यहां पर
    आकर मन प्रसन्‍न हुआ

    आपकी रचना यहां भ्रमण पर है आप भी घूमते हुए आइये स्‍वागत है

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  12. बहुत सुन्दर आलेख। चित्र देखकर लगा जैसे भारत ही पहुँच गये हों।

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  13. बहुत सुंदर चित्र ओर सुंदर आलेख, पढ कर कई नयी बातो की जानकारी हुयी

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  14. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, किस मिट्टी से खुद को गढ़ लिया है ? “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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