शुक्रवार, 18 मई 2012

परिवार वही बेहतर हैं जहाँ आपस में प्रेम , विश्वास और अपनापन है , संयुक्त परिवार हो या एकल !


समाजशास्त्र की किताबों में पढ़ा था कि  मनुष्य एक सामाजिक पशु है .   पशु  समूह में रहना पसंद करते हैं , मनुष्य के लिए भी विभिन्न कारणों से अकेले रहना संभव नहीं . वह परिवार , कबीला ,गाँव आदि बनाकर एक समूह में रहना ही पसंद करता है . समूह में रहने के लिए ना सिर्फ भोगौलिक और प्राकृतिक परिस्थितियां जिम्मेदार है बल्कि मनुष्य की मानसिक अवस्था भी प्रकारांतर से परिवार, कबीला आदि  की रचना के लिए प्रोत्साहित करती रही है . 
 एक परिवार का मतलब समझा जाता है , पति- पत्नी और उनके बच्चों का एक साथ मिल कर रहना , मगर वास्तव में यह रक्तसम्बधियों का समूह है , जहाँ कई भाई , चाचा आदि साथ रहते हैं . विश्व के बड़े भूभाग में परिवार को दो प्रकार से निरुपित किया जाता है . पहला एकल परिवार जहाँ एक ही मुख्य सदस्य और उसकी पत्नी और बच्चे साथ रहें और दूसरा संयुक्त परिवार जहाँ एक पिता के कई बेटे अपने परिवारों के साथ रहते हों , जिनमे व्यस्क होने के बाद भी बंटवारा ना हुआ हो , घर की हर चीज , दायित्व और अधिकार साँझा हैं . 
प्रारंभ से हमारे देश में संयुक्त परिवार का प्रचलन ही रहा है . जैसा की ऊपर बताया संयुक्त परिवार ऐसे कई छोटे परिवारों का समूह है जिसमे घर के प्रत्येक सदस्य की जिम्मेदारी , सुविधाएँ और सुख दुःख भी साझा ही होते हैं . संयुक्त परिवार का एक मुखिया होता है , जो परिवार के सभी सदस्यों के लिए नीतियाँ और निर्देश देता है. इन परिवारों में पुत्र विवाह के बाद अपने लिए अलग रहने की व्यवस्था नहीं करता . परिवार में जन्मे बच्चों के पालन पोषण के लिए एक स्वस्थ वातावरण निर्मित होता है जिसमे वह  समाज में घुल मिल जाने के संस्कार , नीतियाँ , दायित्व आदि सीखता है . एकल परिवार में जहाँ कुछ ही लोगों का लाड़ दुलार मिलता है , वही संयुक्त परिवारों में बच्चा विभिन्न प्रवृतियों वाले एक बड़े समूह  के बीच रहता है , जहाँ उसे लाड़ दुलार के साथ समाज में विभिन्न परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करने के गुण सीखता है जो उसके भावी जीवन के लिए एक सुदृढ़ नींव का निर्माण करते हैं . इन परिवारों में किसी भी बुजुर्ग, अविवाहित या बेरोजगार को विशेष समस्या का सामना नहीं करना पड़ता क्योंकि बाकी सदस्य उनकी जिम्मेदारी उठा लेते हैं . मनुष्य को अवसाद , उदासी , अकेलेपन से बचाने में इन परिवारों की सशक्त भूमिका होती है .
संयुक्त परिवार एक लुभावनी धारणा है. लेकिन प्रत्येक व्यक्ति की दिन प्रति दिन हो रही  आर्थिक और मानसिक उन्नति ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को बहुत नुकसान पहुँचाया है . आज एक परिवार कई परिवारों के साथ एक संयुक्त ढांचे में रहकर स्वयं को बंधन में  महसूस करते हैं . पहले तो संयुक्त परिवार बचे ही नहीं है और जो हैं वे क्लेश के घर बने हुए हैं . जिन परिवारों में संयुक्तता  बची हुई है ,उनमे एकल परिवारों को उपहास की दृष्टि से देखा जाता है . ये बात और है कि अक्सर इन दिखावटी संयुक्त परिवारों के मुकाबले एकल परिवारों में बच्चे बेहतर संस्कार पाते हुए सामाजिक होने का गुण सीख रहे हैं .
वास्तव में परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बनता है . कुछ लोगो के प्यार से साथ रहने , एक दूसरे के सुख दुःख को समझने , साझा करने और संवेदनशीलता और विनम्रता बनाये रखने से ही परिवार की मर्यादा है . पहले संयुक्त परिवारों में सबकी जरुरत के लिए भौतिक सुविधाएँ साझा होती थी मगर आजकल  संयुक्त परिवारों में हर कमरे में एक अलग घर बसा हुआ ही ज्यादा नजर आ जाता है . जो समर्थ है , वह अपने कमरे में सारी भौतिक सुविधाओं का जमावड़ा कर लेता है , असमर्थों द्वारा इनका उपयोग लगभग वर्जित या फिर ताने सुनने का उपक्रम हो जाता है . ऐसे परिवारों में बुजुर्गों की हालत और भी खस्ता हो जाती है .अपनी युवावस्था में अपने सिंचित धन का उपयोग वे परिवार को सुदृढ़ करने में लगाते हैं और आखिर में होता यह है कि बेटों द्वारा अपने कमरे बाँट लिए जाने के कारण मकान के गलियारे में स्थान पाते हैं . अपनी मेहनत की पूंजी से बनाये गये मकान में उन्हें अपने लिए एक कोना तलासना होता है , क्योंकि अपनी युवास्था में उन्होंने स्वयं के लिए नहीं , परिवार की सुख -सुविधा पर ध्यान केन्द्रित रखा .
अपने एक परिचित परिवार का उदाहरण देना चाहूंगी . भरा -पूरा परिवार है , सात- आठ भाई -बहनों का . बहनों का विवाह हो चुका है , वे अपनी गृहस्थी में मगन हैं और सभी भाइयों का अपना घर अपना परिवार , मगर जब किसी भी परिवार में कोई मंगल कार्य हो या पर्व उत्सव हो , ना हो तब भी महीने में कम से कम एक बार  सभी परिवार किसी एक भाई के घर  इकट्ठा होते हैं , मिलकर खाना -पकाना और उसके बाद मौज मस्ती , ताश- कैरम खेलना ,साथ घूमने जाना . व्यक्तिगत होने के बावजूद इनकी खुशियाँ और सुख दुःख साझा होते हैं . जिस सदस्य को  आर्थिक मदद की आवश्यकता है , दूसरे सक्षम सदस्य मिलकर उनकी सहायता करते हैं . 
अब एक संयुक्त परिवार की बात लें . एक ही घर में कई अलग घर बसे हुए . जो सबल है , अर्थ में , जबान में वह जीत में .  मकान में दरारें पडी हैं , घर में बुजुर्ग बीमार है , कोई साझा मेहमान आया है ...ये इस परिवार की समस्या है क्योंकि साझेदारी का काम है . कोई एक पहल क्यों करे , जिम्मेदारी क्यूँ उठाये . महँगी कटलरी , अचार  , मिठाई आदि प्रत्येक कमरे में उनके ससुराल पक्ष के लिए सुरक्षित होती हैं .  कौन आया , कौन गया , घर का बुजुर्ग सदस्य देखेगा क्योंकि यह घर तो उसका ही बसाया है . जब तक बच्चे छोटे हैं , उनकी देखभाल के लिए परिवार की जरुरत है , बुजुर्ग के पास धन है , तब तक उनकी जरुरत है , वरना घर के एक कोने में रहते हुए  बाकी सदस्यों के चेहरे देखने , बात करने को तरस जाते हैं . कई दिनों तक आपस में संवादहीनता बनी रहती है .  
संयुक्त परिवार ही पारिवारिक सद्भाव की गारंटी नहीं है . इसके भी भी अपने गुण- दोष है . 
ऐसे संयुक्त परिवारों का क्या लाभ जिसमे संयुक्त रहने के नाम पर बुजुर्गों का जीवन भर दोहन करने के बाद  एक कोने में पटक दिया जाए और उनकी संपत्ति अपर अपना हिस्सा काबिज करने के लिए उनके मरने का इंतज़ार किया जाए .  जबकि एकल परिवारों में बच्चे या बड़े ज्यादा समय अकेले रहते हैं , उनके घर आने वाले मेहमान अथवा दूसरे पारिवारिक सदस्यों की जिम्मेदारी उनकी अकेले की होती है , जिसे वे बेहतर तरीके से निभाते हैं , साझा करना सीखते हैं वरना तो साझा परिवारों में बच्चे मिठाई , फल तक अपने कमरे में छिप कर खाना सीख लेते हैं . संयुक्त परिवार के पक्ष में एक बड़ी दलील दी जाती है कि इसमें बच्चे ज्यादा सुरक्षित होते हैं . संयुक्त परिवारों में प्रत्येक सदस्यों का अपना परिचय क्षेत्र , मित्र आदि होते हैं, ऐसे में अवान्छितों  का घर में प्रवेश रोक पाना इतना सरल नहीं होता . परिवार के दूसरे सदस्यों के बीच मनमुटाव का कारण बन जाता है . एकल परिवार में  संघर्षपूर्ण जीवन परिवार के सदस्यों के  बीच आपसी समझ को बढाता है , जो रिश्तों को मजबूत करता है .  
हम भारतीय अपने परम्पराओं और संस्कृति पर बहुत गर्व करते हैं, मगर उन्हें परिष्कृत कर बदलते समय के अनुकूल बनाने में उतनी रूचि नहीं रखते . परिवार प्रेम , विश्वास और सहयोग की बुनियाद पर इकट्ठे रहने चाहिए , ना कि सिर्फ लोक लुभावनी संस्कृति के दिखावटी  पोस्टर के रूप में . 
इसलिए परिवार वही बेहतर हैं जहाँ आपस में प्रेम , विश्वास और एक दूसरे के सुख- दुःख में शामिल होने का अपनापन है , वह चाहे संयुक्त परिवार हो या एकल !
मनोजजी कि इस प्रविष्टि ने सोचने पर विवश किया कि क्या वाकई संयुक्त परिवार ही पारिवारिक प्रेम की कसौटी हैं , एकल परिवार में बच्चे या बड़े सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं . 

मनोज जी की इस प्रविष्टि  और फेसबुक पर पर हुई चर्चा ने सोचने पर मजबूर किया कि क्या वाकई सिर्फ संयुक्त परिवार ही अच्छे पारिवारिक रिश्तों की गारंटी है , एकल परिवार सिर्फ स्वार्थी ही होते हैं!! फेसबुक पर भी विचार मंथन हुआ जिसके नतीजे में यह पोस्ट आई .   

फेसबुकिया विचार विमर्श ---
बकौल रश्मि प्रभा जी ...परिवार एक सोच है , रिश्तों का संस्कारों का - जहाँ इसका अस्तित्व है , वह एकल हो या संयुक्त - सही मायने में परिवार वही है . ढोने जैसी भावना का निर्वाह नहीं होता , वह ख़त्म ही हो जाता है ! दिखावे का संयुक्त परिवार ही अधिक देखा है ... जहाँ कई चूल्हे जलते हैं और घिनौनी लडाइयां होती हैं -चूल्हा एक भी हो तो अपने खाने पीने का सामान बेडरूम में भेजने के बाद डाल और सब्जी में ढेर पानी की मिलावपर दिखावा ही अधिक है .... हाँ मर जाने पर यूँ चीत्कार करते हैं कि .... खैर मुझे कोई भ्रम अब नहीं होता ! क्योंकि शांति की लकीरें उस चीत्कार में मुझे दिखी हैं . हमेशा आटे दाल का भाव बढा ही है ... आज के हिसाब से जो महंगाई पहले कम थी , तो वेतन कम था ... पर उस वक़्त दिलों में जगह थी . परिवार में एक उत्साह था , मिल बांटकर खाने का सुख था ...... अब तो बस अपना आराम ! पहले एक आलसी था , अब पलड़ा बराबर है इस आज का भयानक रूप कल होगा .... स्व जब चलने से लाचार होगा तो कोई देखनेवाला नहीं होगा पहले ये दिवस नहीं थे .... तब हर दिन माँ का था , प्यार का था , बुजुर्गों का था , पिता का था , बच्चों का था ------- अब एक दिन का कार्ड , इतिश्री

शिखा वार्ष्णेय ने कहा --आजकल संयुक्त परिवारों में भी सबका अपना कमरा, अपनी अलमारी , अपना फ्रिज, अपना टीवी , अपने नाश्ते ,मेवे, मिठाई के डिब्बे आदि आदि होते हैं..संयुक्त परिवार में नाम के अलावा कुछ भी संयुक्त रहा कहाँ है .मनोज जी जितना ज्यादा कमाते हैं उतना ही लालच बढ़ता जा रहा है.."मैं" के अलावा किसी की जगह ही नहीं बची है इंसानी रिश्तों में .

सोनल जी ने बताया --मैं एक बहुत बड़े संयुक्त परिवार से हूँ पहले त्याग ,सामंजस्य और ममता थी पर आज ,चालाकी दिखावा और चालबाजी ज्यादा है.
बढती महंगाई , लोगो की महत्वाकांक्षा और स्वार्थ ने इसका रूप विकृत कर दिया है.

मनोज जी बोले --परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फ़र्ज़ है कि इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखें।
कभी-कभी दोनों खूब कमाते हुए होते हैं पर एक छत के नीचे रहकर भी वह परिवार परिवार नहीं लगता रह पाता। मुझे लगता है कि त्याग और उदारता की भावना का लोप होता जा रहा है। मानवता के गुणों का ह्रास। हमने (जिस दादी - नानी के ज़माने की बात आपने की है) कि उस ज़माने में एक बेरोज़गार भी संयुक्त परिवार का ऐसेट हुआ करता था।