गुरुवार, 11 अगस्त 2011

रक्षा बंधन की बहुत शुभकामनायें ...

रक्षा बंधन भाई -बहन के निश्छल प्रेम का अनूठा त्यौहार है. सूनी कलाईयां और राखियाँ एक दूसरे की बाट जोहती हैं . इस पर्व को मनाये जाने की अनगिनत कहानियां हैं .
कहते हैं कि सर्वप्रथम शिशुपाल के वध के समय कृष्ण की अँगुलियों से बहे रक्त को रोकने के लिए द्रौपदी ने अपने चीर का एक टुकड़ा फाड़ कर कृष्ण को बाँध दिया था. उसी दिन श्रावण पूर्णिमा होने के कारण यह दिन रक्षाबंधन के पर्व के रूप में मनाया जाने लगा . वहीं इतिहास में रानी कर्णवती द्वारा मुग़ल शासक हुमायूँ को राखी बांधे जाने का जिक्र भी है . सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के शत्रु राजा पुरु को राखी बाँध कर सिकंदर को युद्ध में ना मारने का वचन लिया था .
राखी सिर्फ भाई ही नहीं देवमूर्तियों, वृक्षों , पंडितों द्वारा यजमानों को भी बांधी जाती है. राजस्थान में राखियाँ सिर्फ भाइयो को ही नहीं अपितु भाभी को भी विशेष लटकन वाली राखी " लुम्बा " बांधी जाती है .
राखी के अवसर पर राजस्थान के देवड़ा ग्राम का जिक्र ज़रूरी हो जाता है . जैसलमेर गाँव में एक पूरी सदी लड़कों की कलाईयां सूनी ही रही .ठाकुर बहुल इस ग्राम में बार -बार के आक्रमणों से व्यथित होकर लड़कियों को जन्म लेते ही मार देने की परंपरा थी . सदियों तक राखी के पर्व के नाम पर सिर्फ ब्राहमणों द्वारा ही पुरुषों के हाथ पर राखी बांधी जाती थी . शिक्षा और सामाजिक जागरूकता ने अलख जगाई और अब हर घर में लड़कियों की किलकारी और भाई की कलाई पर राखी है .
माँ जसोदा ने भी बांधी थी राखी . सूरदास ने गाया ...

राखी बांधत जसोदा मैया ।
विविध सिंगार किये पटभूषण, पुनि पुनि लेत बलैया ॥
हाथन लीये थार मुदित मन, कुमकुम अक्षत मांझ धरैया।
तिलक करत आरती उतारत अति हरख हरख मन भैया ॥
बदन चूमि चुचकारत अतिहि भरि भरि धरे पकवान मिठैया ।
नाना भांत भोग आगे धर, कहत लेहु दोउ मैया॥
नरनारी सब आय मिली तहां निरखत नंद ललैया ।
सूरदास गिरिधर चिर जीयो गोकुल बजत बधैया ॥ (साभार कविता कोष )


मेरी राखी आभासी दुनिया के उस विशेष भाई के लिए जिसने कभी सार्वजनिक रूप से मुझे दीदी या बहन नहीं कहा , मगर एक दिन उसने मुझे एहसास दिलाया कि जब पहली बार मैंने उसे अनुज कहा , तब से वो मेरा भाई ही है ...

सीमा पर कठिन परिस्थितयों में भी हौसले और उमंग के साथ देश की रक्षा का ज़ज्बा लिए हर सैनिक भाई की सूनी कलाई के लिए भी....




चित्र गूगल से साभार ...

सोमवार, 8 अगस्त 2011

यही तो है मेरे मन में बसा राधा का स्वरुप....


अनूठा तेरा प्रेम राधा !


राधा कृष्ण की प्रेमकथा पर अनगिनत बार लिखा जा चुका है . अनगिन कथाएं पढ़ी है मगर इनका राधा और कृष्ण का चरित्र ही ऐसा है , जितना गुना जाए कम है . उड़ीसा के प्रमुख सहित्यकार श्री रमाकांत रथ जी का लेख अहा! जिंदगी में पढ़ा तो बस मुग्ध भाव से मुंह से यही निकला ...अनोखी राधा तेरी प्रीत! सबसे अलग , सबसे अनूठा ...

इनका अनूठा खंड काव्य "श्री राधा " राधा के उदात्त और प्रेममय चरित्र के अनगिनत पृष्ठ खोलता है , इन्हें पढ़ते हुए ऐसे अद्भुत नयनाभिराम दृश्य पलकों पर स्थिर हो जाएँ और इस अद्भुत प्रेम की पुलक और सिहरन को पलकों से बहता देखा जा सके . निष्काम प्रेम की बहती सरिता ...रमाकांत रथ की राधा में डॉ मधुकर पाडवी ने इस ग्रन्थ की बेहतरीन समीक्षा प्रस्तुत की है ..


प्रस्तुत है इस लेख के कुछ अंश ...

राधा -कृष्ण की प्रेमकथा विश्व की किसी भी प्रेमकथा से भिन्न है . जब वे एक दूसरे से मिले , राधा का विवाह हो चुका था . कृष्ण के साथ उसका सम्बन्ध ऐसा था कि उसके साथ रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी . यदि उन्हें लोगों का सहयोग भी मिलता , तब भी उनका विवाह हो नहीं सकता था . राधा निश्चित रूप से यह बात जानती होगी , तब भी अगर वह अपने जीवन की अंतिम सांस तक कृष्ण को चाहती रही तो स्पष्ट है कि यह सब वह बिना किसी भ्रम के करती रही . कृष्ण के साथ अपने संबंधों का आधार उसने सांसारिक रूप से एक -दूसरे के साथ रहने के बजाय कुछ और बनाया , जो इससे कही अधिक श्रेष्ठ था . यदि व्यक्ति में कामना की निष्फलता को स्वीकार करने का साहस हो यह संभव ही नहीं कि वह किसी भी स्थिति में वियोग से पराजय स्वीकार करेगा .

कृष्ण के प्रति उसका प्रेम अनूठा रहा होगा . ऐसा प्रेम किसी साहस विहीन व्यक्ति के ह्रदय में तो उपज ही नहीं सकता था . जब वह कृष्ण वर्ण बादलों को देखती तो पूरी रात वियोग में रोती और गाती रहती है और अपनी सहेलियों से याचना करती है की वे कृष्ण को उसका सन्देश दें . इन गीतों में यही वर्णित है कि वह कैसे अपने आप से परे एक व्यक्तित्व में बदल जाती है . यह सब सत्य भी हो सकता है , पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि राधा भीरु थी . इसका अर्थ यह भी है कि वह अपनी इस स्वतंत्रता का उपयोग अपने जीवन के एक मात्र ध्येय यानी कृष्ण से प्रेम करने में किसी प्रकार का जोखिम नहीं है . यदि वह अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाती तो कृष्ण के प्रति उसकी अनुभूति इतनी गहन नहीं होती . राधा की जिन बातों से उसकी दुर्बलता तथा कोमलता प्रकट होती है , वे वास्तव में उसकी चारित्रिक दृढ़ता और धैर्य की उपज है .

मैं किसी ऐसी चिडचिडी राधा की कल्पना कर नहीं सकता जो वृन्दावन छोड़ने के लिए , उस पर निष्ठा नहीं रखने के लिए तथा अपने प्रति उदासीन रहने के लिए चिडचिड़ाती हो और उसके प्रति प्रेम को मान्यता दिलवाने या उसके साथ रहने के उपाय ढूँढने के लिए उससे कहती हो . ऐसा कोई भी आचरण उसके लिए अप्रासंगिक है . प्रारंभ से ही वह ऐसी कोई आशा नहीं पाले रखती है अतः कुंठित होकर निराश होने होने की भी उसकी कोई सम्भावना नहीं है . यदि वह निराश हो सकती है तो केवल इसलिए कि कृष्ण को जिस सहानुभूति और संवेदन की आवश्यकता थी , वह उसे न दे सकी . न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है !

अद्भुत !


चित्र गूगल से साभार !