शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

मॉल और मोबाइल संस्कृति और मध्यम वर्ग ....




हर शहर में गगनचुम्बी इमारतों में जगमगाते शौपिंग मॉल देश के विकासशील होने की पुष्टि करते नजर आते हैं . कुछ वर्षों पहले तक इन मॉल में खरीददारी करना आम इंसान के वश की बात नहीं थी मगर उदारीकरण की प्रक्रिया ने हमारे देश में एक नव धनाढ्य मध्यमवर्ग को जन्म दिया है . विदेशी कम्पनियों द्वारा मिलने वाले अच्छी तनख्वाह ने अनायास ही अमीर हुए इस वर्ग की संख्या में भारी इजाफा किया है . पढ़ी -लिखी यह पीढ़ी आधुनिक जीवन शैली को अपनाते हुए आज ही जी लेने में विश्वास करती है . अपने जीवन को मौज- मस्ती से गुजारने के लिए इनके हाथ अच्छी कमाई के कारण खुले हुए हैं जो बाजार के ललचाई आँखों का निशाना भी बने है . मॉल-संस्कृति इन्ही नव धनाढ्यों को लुभाने और भुनाने का जरिया है . चमचमाते गगनचुम्बी इमारतों में बने ये मॉल ग्राहकों को विशिष्ट होने का अहसास करते हुए उनके अहम् को संतुष्ट करते हैं . आम मध्यमवर्ग की खरीद क्षमता में वृद्धि होने के कारण आधुनिक जीवनशैली अपनाते यह वर्ग घर और ऑफिस में एयरकंडीशन की हवा खाते हुए पल बढ़ रहा है इसलिए मौज -मस्ती के पलों में भी यह ऐसा ही वातावरण चाहता है जो मॉल संस्कृति उन्हें उपलब्ध करने में सफल होती है . एक ही स्थान पर सभी जरुरत /शौक पूरे करने अवसर उपलब्ध होना , ब्रांडेड माल के प्रति बढती आसक्ति ,प्रकृति से दूर जीवन बिता रहे इस वर्ग को बहुत लुभा रही है बिना इस बात कि परवाह किये कि आम दुकानों के मुकाबले मॉल में एयर कंडीशन ,एक्सेलेटर , लिफ्ट, सुरक्षा व्यवस्था ,बिजली , सफाई आदि का अतिरिक्त खर्चा उनकी जेब से ही वसूला जा रहा है । छोटे दुकानदारों के लिए रोजगार की कमी होने के अलावा मॉल संस्कृति का सबसे बड़ा खतरा कुछ कॉर्पोरेट घरानों के हाथ में अर्थव्यवस्था के केंद्रीकृत होने का भी है।
मगर फिर भी ...
मॉल संस्कृति के इस पक्ष को जानते हुए भी कुछ तो है जो सुखद लग रहा है । मध्यमवर्ग जहाँ पहले सिर्फ टीवी या फिल्मों में ही मॉल्स देखकर संतुष्ट हो लेते थे, अब आसानी से बेधड़क इनमे प्रवेश कर खरीददारी और इनकी सेवाओं का लुत्फ़ उठा सकता है ...मॉल्स में तफरी करते इन साधारण लोगों के चेहरे पर उच्च वर्ग के साथ खुद को खड़ा देखने की एक तरह की आत्मसंतुष्टि मुग्ध भी करती है ...
इसी तरह जहाँ मोबाइल भी कुछ वर्षों पहले तक लक्जरी ही माना जाता था ,वहीँ आज महरियों , छोटे कामगारों , बागवानों , मजदूरों तक के हाथ में ये खिलौना -सा नजर आने लगा है ...सायकिल पर अपने गंतव्य या कार्यस्थल की ओर जाते इन निम्न वर्ग के लोगों को मोबाइल पर बतियाते या गीत सुनते देखकर कभी -कभी मुझे ख़ुशी भी होती है ...वहीँ अगले ही क्षण ये एहसास भी कचोटता है कि इन बढे हुए खर्चों की पूर्ति वे किस तरह करते होंगे ...जहाँ दो वक़्त के भोजन के लिए उनके जीवन में इतनी मशक्कतें है , क्या उन्हें इन अतिरिक्त खर्चों को वहन कर खुश हो जाना चाहिए ....चलती रहती है दिल और दिमाग की रस्साकशी ...दिल कहता है कि वे थोडा खुश हो लेते हैं तो इस बढे हुए खर्च से क्या फर्क पड़ता है , वही दिमाग टोकता भी है कि ये आवश्यकताएं हैं या सिर्फ दिखावा, क्या इन पर खर्च कर गरीब को और गरीब तथा अमीर को और अमीर बनाने में सहयोग किया जाना चाहिए ... आप क्या कहते हैं ...??