मंगलवार, 21 सितंबर 2010

बड़ों की पहचान छोटे कार्य से होती है ......... भागवत से कुछ प्रसंग

बड़ों की पहचान छोटे कामों से होती है ...

महाभारत के बाद पांडवों ने यज्ञ में संतों , महात्माओं और राजाओं को बुलाया तथा सभी पांडवों को सेवा हेतु अलग -अलग कार्य सौंप दिए । सभी सेवा में लीन थे । इसी बीच कृष्ण आये । सभी पांडव उनके पास आये तभी एक राजा ने व्यंग्य करते हुए कहा कि आप सब लोग कृष्ण सेवा में लग गए ।
कृष्ण ने मुस्कुराकर युधिष्ठिरने से पूछा ," मेरे हिस्से में कौन सा काम सौंपा है ?"
इसपर युधिष्ठिर ने कहा " आप विशेष अतिथि हैं " ।
भीम ने कहा , " आप क्या काम करेंगे "
कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा " क्या मैं इतना अयोग्य हूँ कि काम नहीं कर सकता "
आखिर युधिष्ठिर ने कहा कि आपकी जो इच्छा हो , वही कार्य कर लें । कृष्ण मुस्कुराते हुए उठे और वहां पहुँच गए जहाँ अतिथि खाना खा रहे थे । वे उनकी जूठी पत्तलें उठाने लगे ।
पांडवों के रोकने पर उन्होंने कहा," मुझे जो कार्य अच्छा लगा , कर रहा हूँ । सेवा से बढ़कर और कौन सा श्रेष्ठ कार्य हो सकता है ।
भीम ने कहा , " यह कार्य सबसे छोटा है , और आप सबसे बड़े "
कृष्ण ने उत्तर दिया , " बड़े की पहचान छोटे कार्य से होती है ।" सेवा कार्य कोई भी छोटा नहीं होता ।


अहंकार की लडाई ...

ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र का बैर भी भागवत कथा का विषय रहा है ।
वशिष्ठ , विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि नहीं मानते थे । क्रोधित होकर विश्वामित्र ने उनके सौ पुत्रों का वध कर दिया फिर भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ । एक बार वे वशिष्ठ को मारने का प्रयत्न करने रात्रि में उनकी कुटिया में पहुँच गए । कुटिया में वशिष्ठ अपनी पत्नी से बात कर रहे थे .." देखों अरुंधती ! आज पूर्णिमा का चाँद ऐसे चमक रहा है जैसे विश्वामित्र का यश । अरुंधती को पुत्रों के हत्यारे की मां के सामने प्रशंसा करना अच्छा नही लगा ।
अरुंधती ने कहा " फिर आप उन्हें ब्रह्मर्षि क्यूँ नहीं मान लेते हैं , जिससे यह वैर ही समाप्त हो जाए , मेरे सामने उन्हें ब्रह्मर्षि मानते हो , मगर उनके सामने क्यों नहीं "
विश्वामित्र यह वार्तालाप छिप कर सुन रहे थे ।
ऋषि वशिष्ठ ने उत्तर दिया , " विश्वामित्र ज्ञानी व तपस्वी हैं अतः मैं उन्हें ब्रह्मर्षि मानता हूँ परन्तु उनमे अहंकार है , अतः उनके सम्मुख यह स्वीकार नहीं करता ।
इतना सुनते ही विश्वामित्र ने कुटिया में आकार वशिष्ठ के पैर पकड़ लिए ।
वशिष्ठ ने कहा " यह क्या कर रहे हो , ब्रह्मर्षि...?
नम्रता से विश्वामित्र ने जवाब दिया..." अपना अहंकार गला रहा हूँ "

द्रौपदी की उदारता ....
भागवत में द्रौपदी की उदारता का वर्णन भी है ...
द्रौपदी के पुत्रों को मारने वाले अश्वत्थामा को जब अर्जुन पकड़ कर द्रौपदी के सम्मुख लाये और उसका वध करने लगे तो द्रौपदी ने उन्हें रोक दिया तथा उसका वध करने से रोक दिया । उसने अश्वत्थामा को ना मारने के पांच कारण इस प्रकार बताये ...
1. पुत्रवत है
२. मेरे पुत्र छोटे थे , यह बड़ा है
3. ब्राह्मण पुत्र है
4. गुरुपुत्र है
5. मां की पीड़ा जानकर ...एक मां दूसरी माँ की पीड़ा को समझती है ...


कृष्ण -सुदामा की मैत्री

भागवत कथा में कई कथाएं व प्रसंग आये हैं । इसमें मुख्य कथा कृष्ण-सुदामा की है । सुदामा गरीब ब्राह्मण था । पर वह किसी से मांगकर नहीं खाता था । हवन , पूजा व विवाह कराता था । कृष्ण से शापित सुदामा बड़े कष्ट में जीवन यापन कर रहा था ।
गुरु संदीपनी के आश्रम में जब कृष्ण व सुदामा एक साथ विद्या प्राप्त कर रहे थे , एक बार जंगल में लकड़ी काटने जाते समय गुरुमाता ने सुदामा को दो मुट्ठी चिवड़ा (चना ??) दिए और कहा कि भूख लगने पर दोनों मित्र खा लेना । लकड़ी काट कर लौटने से पहले ही घनघोर वर्षा के कारण दोनों को अलग -अलग पेड़ों पर शरण लेनी पड़ी । भूख लगने पर सुदामा ने अकेले ही चिवड़ा खाना शुरू कर दिया , चट पट की आवाज सुनकर कृष्ण ने उनसे पूछा कि तुम क्या कर रहे हो , सुदामा ने झूठ कह दिया कि सर्दी से मेरे दांत बज रहे हैं । सुदामा के इस उत्तर से अंतर्यामी कृष्ण मुस्कुराने लगे । वे समझ गए थे कि सुदामा झूठ बोल रहा है । जब सुदामा को अपनी गलती का एहसास हुआ तो उसने कृष्ण से क्षमा मांगी , तभी कृष्ण ने उसे दरिद्र रहने का श्राप दिया था । वही दो मुट्ठी सुदामा ने जब कृष्ण को वापस लौटाए , श्राप मुक्त हुए ।

सुदामा अपनी पत्नी सुशीला के साथ बड़े कष्ट से जीवन यापन करता था । उसकी पत्नी गरीबी पर हमेशा उसे कोसती थी । वह रोज -रोज सुदामा को कृष्ण के पास जाने और उससे मदद लेने के लिए कहती रहती थी । मगर सुदामा हर बार यह कहकर टाल जाते कि ...मैं किसी से मांग नहीं सकता हूँ , मित्र से माँगना अपमान है । मैं बड़ा हूँ , इसलिए भी छोटे से मांग नहीं सकता । राजाओं से मिलने पर भेंट दे जाती है और वो भी मेरे पास नहीं है । मैं गरीब हूँ , वह राजा है , कहीं पहचानने से इंकार कर दे तो । और फिर द्वारका इतनी दूर है , मैं दुर्बल कैसे इतनी दूर तक चल पाऊंगा ।
इस पर सुशीला ने उसे समझाया कि ठीक है। तुम मित्र से माँगना मत , मगर मिलने तो जा सकते हो । संसार के सारे व्यक्ति दुःख में कृष्ण को याद करते हैं , सहायता की कामना करते हैं । आखिरकार सुदामा जाने को राजी हुए । सुशीला ने पडोसी से कृष्ण को भेंट देने के लिए मुट्ठी भर मेवे मांगे और कहा कि मेरे पति कृष्ण से भेंट करने जा रहे हैं । गरीबों की सत्य कौन मानता है । उसने कहा , " मैंने आज धान कूटा है , तू तंदुल चुग ले " ।

सुशीला ने पहले कहा था कि तुम मुझे जो भी दोगी , कृष्ण द्वारा दिया गया धन आधा तुम्हे लौटा दूंगी । इसपर पड़ोसन ने उसकी गरीबी का मजाक उड़ाते हुए तंदुल बीन लेने को कहा । वही फटे कपड़े में बाँध कर सुदामा कृष्ण से मिलने तैयार हुए । रास्ते में नदी आने पर सुदामा को केवट ने बताया कि द्वारका पहुँचने में तो छः मास लगेंगे । सुदामा नाव से उतर कर वही सो गया और निश्चय किया कि द्वारका नहीं जाना है । यदि कृष्ण को मिलना हो तो यहीं आ जायेगा । उधर कृष्ण को ज्ञात हुआ कि सुदामा आ रहा है । उन्होंने मोहमाया को बुलाकर कहा कि नदी के किनारे एक वृद्ध सो रहा है ,जिसके सांसों से कृष्ण कृष्ण की आवाज़ आ रही है , उसे उठाकर द्वारका ले आओ
महामाया कृष्ण को द्वारिका ले आई ...मिलने पर कृष्ण ने सुदामा के पैर अपने अश्रु जल से धोये , नए वस्त्र पहनाये , अच्छा और स्वादिष्ट भोजन खिलाया , और सुशीला के दिए हुए अन्न के दाने पोटली छीन कर खाने लगे जब सुदामा लौटने लगे तो कृष्ण ने उनके फटे पुराने वस्त्र ही पुनः पहना दिए । विदा होते समय सुदामा कृष्ण से कह कर रो पड़े . " गरीबों का इतना सत्कार कौन करता है , मै तो केवल इतना ही कह सकता हूँ कि द्वारका में मैंने जो कुछ प्राप्त किया है , उसे ही वापस लौटाता हूँ ।
अर्थात सुदामा ने कुछ माँगा नहीं , लिया नहीं -- केवल मिला ही । कृष्ण ने उन्हें दो लोकों का राज्य दिया था , सुदामा ने उसे वापस लौटा दिया । इसलिए ही कृष्ण को त्रिलोकी नाथ कहा जाता है । कृष्ण ने सुदामा को कुछ नहीं दिया क्यूंकि उन्होंने माँगा नहीं था , मगर सुशीला को धन व महल दिए थे क्यूंकि उसने माँगा था ...

माँगना है , झोली फैलानी है सिर्फ उस कृष्ण के सामने फैलाओ ...