शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

बेशक स्वतन्त्रता का जश्न मनाये ...ये तो जान लें कि देश- प्रेम है क्या ....!

मुबारक हो ...हम एक बार फिर स्वतंत्र होने जा रहे हैं ...... एक बार फिर तरंगा लहराएगा , राष्ट्र गान गायेंगे , लड्डू या अन्य मिठाईयां बाटी जायेंगी ....विद्यालयों में तो फ़िल्मी गानों पर लटके झटके दिखाते छोटे- मोटे सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हो जाएँ शायद ... सार्वजनिक स्थलों पर परेड भी ...बस इस तरह मन जाएगा स्वतन्त्रता देवास ...हर वर्ष की भांति ही ...बस कलेंडर में वर्ष तिथि बदली होगी ...और क्या बदलेगा .....

गरीबी , अशिक्षा , भूखमरी , हिंसा , साम्प्रदायिकता ये सब कुंडली मारे ज्यों के त्यों बैठे रहेंगे ...लोकतंत्र और उदार होता रहेगा ...चाहे आर्थिक और सामाजिक ढांचा चरमराता रहे , हिमालय की चोटियों से कोई ललकारता रहेगा , देश के विभिन्न कोनों से अलगाववाद की चिमनी से निकलता धुआं , खाप पंचायतों की भेंट चढ़े कुछ और परिंदे , हमारा स्वतंत्रता दिवस बदस्तूर बिना किसी रूकावट यूँ ही मनाया जाता रहेगा ....

बल्कि मेरा तो मानना है कि सरकारी संस्थानों और विद्यालयों में स्वतंत्रता दिवस समारोहों की रिकॉर्डिंग कर रख ली जानी चाहिए और हर वर्ष उसे विडियो पर घर बैठे देख लेना चाहिए .....फालतू आने जाने में बच्चे और बड़े परेशान क्यूँ ....हर वक़्त किसी हादसे की चपेट में आने का डर क्यूँ पालें ... सुरक्षा व्यवस्था पर इतना खर्च क्यों ....समय और धन दोनों की ही बचत हो जायेगी ...एक औपचारिकता को निभाने के लिए इतना ताम जहां क्यूँ ...माफ़ कीजिये यदि आपको इस लेख में कुछ तल्खी नजर आये ....मगर कवि रामनाथ सिंह जी की इन पंक्तियों को पढ़कर बताये ....कि हम कितने आज़ाद है ...
'सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है
'

बेशक रस्मी ही मनाएं स्वतंत्रता दिवस ...एक बार याद कर लें उस महापुरुष को जिसने रामराज्य के सपने देखे थे...उसी देश में राम के अस्तित्व को ही नकारा जा रहा है और रावण असलियत का जामा पहने अट्टहास करता नजर आ रहा है ... स्वतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर सुरक्षा व्यवस्था और मजबूत करने का सन्देश प्रसारित किया जाता है ....आखिर हमारी सुरक्षा इतनी असुरक्षित क्यूँ हो गयी है जो 64 वर्षों से हर बार पहले -से कड़ी होने के बाद भी सुरक्षित नहीं ...

स्वतंत्र होने का औपचारिक जश्न मानते सरकारी मुलाजिम और लोकसेवक , देश प्रेम की सच्ची भावना क्या है ...क्या होनी चाहिए ...देखिये आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने क्या कहा ....

" जन्मभूमि का प्रेम , स्वदेश -प्रेम यदि वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है तो स्थान के लोभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ... इन लोभ के लक्षणों से शून्य देश प्रेम कोरी बकवाद या फैशन के लिए गढ़ा हुआ शब्द है ... यदि किसी को अपने देश से प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य , पशु , पक्षी , लता , गुल्म , पेड , पत्ते , वन , पर्वत , नदी , निर्झर सबसे प्रेम होगा ...सबको वह चाह भरी दृष्टि से देखेगा , सबकी सुध करके वह विदेश में भी आंसू बहायेगा ....जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किसी चिड़िया का नाम है , जो यह भी नहीं सुनती के चातक कहाँ चिल्लाता है ...जो आँख भर यह भी नहीं देखते के आम प्रणय सौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं , जो यह भी नहीं झांकते कि किसानों के झोंपड़ों के भीतर क्या हो रहा है , वे यदि दास बने ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बता कर देश प्रेम का दवा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि " भाइयों , बिना परिचय का यह प्रेम कैसा ...? जिनके सुख-दुःख के तुम कभी साथी नहीं हुए , उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो , यह समझते नहीं बनता । उनसे कोसों दूर बैठे बैठे , पड़े पड़े , या खड़े खड़े तुम विलायती बोली में अर्थशाश्त्र के दुहाई दिया करो , पर प्रेम का नाम उनके साथ ना घसीटो । "

प्रेम हिसाब किताब की बात नहीं है । हिसाब - किताब करने वाले भाड़े पर मिल जाते हैं पर प्रेम करने वाले नहीं । हिसाब किताब से देश की दशा का ज्ञान मात्र हो सकता है । हित- चिंतन और हित- साधन की प्रवृत्ति इस ज्ञान से भिन्न है । वह मन के वेग पर निर्भर है , उसका सम्बन्ध लोभ या प्रेम से है जिसके बिना आवश्यक त्याग का उत्साह हो ही नहीं सकता है । जिसे ब्रज की भूमि से प्यार होगा इस प्रकार कहेगा ...
नैनन सो रसखान जबै ब्रज के बन बाग़ तडाग निहारौं
केतिक ये कलधौत के धाम करीक के कुंजन ऊपर बारौं ..

रसखान तो किसी की लकुटी अरू कमरिया पर तीनों पुरों का राजसिंहासन तक त्यागने को तैयार थे , पर देश प्रेम की दुहाई देनेवालों में से कितने अपनी किसी थके -मांदे भाई के फटे पुराने कपड़ों और धूल भरे पैरों पर रीझकर या कम से कम खीझकर , बिना मन मैला किये कमरे की फर्श भी मैली होने देंगे ...

अब पूछिए के जिनमे वह देश प्रेम नहीं है उनमे वह किसी प्रकार भी हो सकता है ...? हाँ , हो सकता है ....परिचय से ...सान्निध्य से .....


जय हिंद ..

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

"तीज त्यौहारां बावड़ी " ....

मरू भूमि राजस्थान ...बरसों सूखी पड़ी धरा के साथ सामंजस्य स्थापित करते यहाँ के वासियों ने अपनी जीवटता से अपने लोक उत्सवों और रंग बिरंगे परिधानों से गिने चुने रंगों की एकरसता को दूर कर दिया है ...और इस बार जब सावन जम कर बरसा है ...धरा हरी चुनरी पहन कर इठला रही है तो इन पारंपरिक उत्सवों की छटा ही निराली है ...
प्रत्येक त्यौहार और मांगलिक अवसर के अनुसार विभिन्न प्रकार के रंग बिरंगे वस्त्र और भोजन राजस्थानी संस्कृति की अनूठी विशेषता है ...

राजस्थान में तो त्योहारों की शुरुआत ही इस विशेष पर्व से होती है ...
लोकश्रुति में तो कहा भी जाता है ...
"तीज त्यौहारां बावड़ी ले डूबी गणगौर'' ...
यानी तीज सभी त्योहारों को लेकर आती है गणगौर अपने साथ वापस ले जाती है ...जयपुर के सीटी पैलेस की जनानी ड्योढ़ी से निकलने वाली तीज की सवारी विशेष आकर्षण होती है ...


तीज के पहले दिन सिंजारे पर महिलाएं सोलह श्रृंगार कर सजती संवारती हैं , मेहंदी लगाती हैं , झूला झूलती हैं ...नवविवाहिताओं के लिए तो यह पर्व और भी ख़ास होता है ...पहले सावन मास में सास से दूर रहने की परंपरा के चलते अधिकांश नवविवाहिताएँ मायके में होती हैं और उन्हें ससुराल पक्ष की ओर से " लहरिया" और इसके साथ ही लाख की लहरिया डिजाईनदार चूड़ियाँ , घेवर , फल आदि भी भेंट किये जाते हैं ...लहरिया पहने हाथों में मेहंदी सजाये झूला झूलते बरबस ही गुनगुना उठती हैं ...
" पिया आओ तो मनड री बात कर ल्यां "


पर्व सभी महिलाओं के लिए ख़ास है इसलिए कहीं कहीं वे पति से लहरिया दिलाने की मनुहार करती भी नजर आ जाती हैं ...

" म्हान लाई दो नी बादीला ढोल लहरियों सा "




उत्तर भारत में भी यह पर्व " हरितालिका तीज " के रूप में मनाया जाता है ...



चित्र गूगल से साभार