शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

डायरी में दर्ज एक शाम ...


हाथ में चाय की प्याली लिए सूरज को ढलते हुए देखना...अपनी छत से ही सही ....मुझे बहुत रूमानी -सा लगता है ...शाम के समय जब दूर क्षितिज में सूरज का सिन्दूरी गोला धीरे धीरे लुढ़कता अदृश्य धरती की ओर बढ़ता है आसमानी रूई के फाहों से बादलों के बीच रचती इस इन्द्रधनुषी माया को देखने मैं अक्सर अपनी चाय का प्याला लिए छत पर चली आती हूँ. (यदि पतिदेव दफ्तर से आ चुके हो तो वे भी )...... मुक्त आकाश के तले कितने विचार बनते -बिगड़ते डूबते -उतरते रहते हैं ...

चुचाप बैठे देखना ...सामने पार्क में बच्चों का कलरव ...उनकी उछल कूद ...हँसना- खिलखिलाना ...रंगबिरंगे वस्त्रों में अपनी मम्मियों की अंगुलियाँ थामे निश्चिंत ....हर चिंता फिक्र से दूर ... मैं गिनती करने लगती हूँ ...कितने बच्चे है ....

अँधेरा होते होते घर लौटते ये बच्चे ...सुन रही हूँ एक मां कह रही है ..." चलो बेटा अब , पापा आते ही होंगे "...मुझे अचानक जंगल में १००० लोगो के बीच घिरे १०० लोग याद आ जाते हैं ...कोई किसी घर में उनका इसी तरह इन्तजार करता होगा ...शाम ढले ...उन १००० का भी और १०० का भी ...उनकी शाम तो कहाँ ढल पाती होगी ...इन्तजार भी कहाँ पूरा हुआ होगा ...उनमे से बहुतों का ...

तभी पार्क के सामने वाले घर से मेरी पड़ोसन हाथ हिलती नजर आती है ...छोटी बेटी चिल्ला कर कहती है ..." मां ,वो रही आपकी बेस्ट फ्रेंड " ...हम आपस में इशारों से बात करने लगते हैं ...कल चौथ का व्रत है ...सुबह १० बजे के बाद पूजा करेंगे ...आ जाना "
बेटियां मुंह दबा कर हँस रही है ...आप लोग कैसे समझ जाते हो बिना बोले एक दूसरे की बात इतनी दूर से ...मैं मुस्कुरा देती हूँ ...पूरे  गृहस्थिनो  की भाषा एक जैसी ही होती होगी शायद ...

बिलकुल पास वाले घर में आंटीजी पानी डाल रही हैं पौधों में ...बहुत शौक है उन्हें भी ...पत्तेदार पौधों का तो था ...फूलों का मैंने जगा दिया ...उछलती पानी की बूंदों से चिड़ियाँ खुश हो जाती हैं .....पड़ोस के तीसरे मकान के बाहर ठाठ से गाडी धो रहे इंसान को क्या कहूँ ...कई बार टोक चुकी हूँ ...मगर कोई फायदा नहीं ...पानी की भारी किल्लत के बीच उनका इस तरह पाईप से गाड़ी धोना किसी को सुहाता नहीं मगर किया क्या जाए ...वहां से बहकर आ रहे पानी का पोखर सा बन जाता है हमारे घर के बाहर ...चिड़िया तेजी से भागती है वही ...आनंदित होकर डूबकियां लगा रही है ...थोडा सा खुश हो लेती हूँ ...इस बहते पानी से पक्षी खुश हो रहे हैं ...यही सही ...ये बेजुबान भी बहते पानी और रुके पानी का फर्क बखूबी समझते हैं ...तसले में पहले से भर कर रखे पानी की ओर झांकती भी नहीं जब ताज़ा पानी नजर आ रहा हो ....


अचानक क्षितिज में एक तारा नजर आ रहा है ....धीरे- धीरे अँधेरा बढ़ता जा रहा है ...आसमान किसी विवाहिता की चुनरी सा लग रहा है ...छोटे छोटे सितारे टांक दिए हों किसी ने ...इस ब्रह्माण्ड में कितने तारे हैं ...सब अपने -अपने स्थान पर ...निश्चित दूरी पर ...कोई किसी से टकराता नहीं ...विचरते हैं ...घूर्णन भी करते हैं ...टकराते नहीं ...कौन बाँध कर रखता है इन्हें ...कौन बताता है इन्हें इनका पथ ....कौन तय करता है ....अबूझ सवालों से घिरने लगती हूँ मैं ...दीया -बाती का समय हो चला है ... डायरी में दर्ज़ शाम का भी ....

फिर किसी और दिन और किसी शाम का ...

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

क्या कहलाते हैं ये रिश्ते .....

कैसे होते हैं इंसानी रिश्ते ...कुछ प्रकृति प्रदत्त ..जन्म से जैसे माता-पिता, भाई बहन आदि ....कुछ वैधानिक जैसे पति , सास -श्वसुर आदि (क्या ईश्वरीय ही मान ले ...ईश्वर की आज्ञा से )...कुछ अनाम जो रिश्ते होते ही नहीं ...या यूँ कहें... मानवीय (इंसानियत के कारण बने ) रिश्ते ...कई बार इन रिश्तों में घात/प्रतिघात और मानसिक क्षति उठाने के बावजूद इन रिश्तों से मेरी श्रद्धा कम नहीं होती ...क्या करूं ...मैं ऐसी ही हूँ ...आरोपों और आलोचनाओं के बावजूद इन रिश्तों की अहमियत मेरी नजरों में कभी कम नहीं होती ...

ऐसे ही इंसानी रिश्ते को याद कर रही हूँ पिछले कुछ दिनों से ...

बात कॉलेज के ज़माने की है ...अपने गाँव में कॉलेज नहीं होने के कारण ननिहाल में अपने नाना - नानी के पास रह कर डिग्री ज्ञान अर्जित करने का प्रयास कर रही थी ... प्री-यूनिवर्सिटी परीक्षा के लिए कॉलेज में फॉर्म भरे जा रहे थे ...फॉर्म तो क्लास में भरवा दिए गए ...परीक्षा देने के लिए फीस भी जमा करनी होती है ..जाने कैसे मैं ये भूल गयी ...या कभी जरुरत ही नहीं समझी याद रखने की ...फीस जमा करने का काम मेरे कज़िन का होता था ...यहाँ हम तो निश्चिन्त ...फॉर्म भर दिया ...अब तो ठाठ से एक्ज़ाम देना है ...पता ही नहीं कि फीस तो जमा ही नहीं हुई है ...नोटिस बोर्ड पर बाकायदा मोटी अक्षरों में फीस जमा नहीं करने वालों की लिस्ट में दूसरा नाम हमारा ही था ...उस कस्बे में नोटिस बोर्ड के आगे लड़कियां खास मौकों पर ही खड़ी होती थी ...फ्री टाइम में वे भली और उनका कॉमन रूम भला ... गिनी- चुनी तो लड़कियां थी कॉलेज में ... और वे भी अपने भाइयों , मामाओं और चाचाओं की निगेहबानी में ...कभी जहमत ही नहीं उठाई कि जाकर नोटिस बोर्ड देख आये ...
विज्ञान विषय होने के कारण कॉलेज में फ्री टाइम का तो सवाल ही नहीं उठाता था...बाकायदा 9 से 4 बजे तक स्कूल के जैसे ही क्लासेज अटेंड करनी पड़ती थी ...तिस पर हर पिरीअड अलग -अलग कमरे में ...सीढियाँ चढ़ते उतरते ही हालात खस्ता हो जाती थी ...

ऐसे में एक दिन कॉलेज से घर लौटकर बरामदे में बैठी मामी मेरे बाल सुलझा रही थी कि मेन गेट पर दो लड़के आ खड़े हुए ...हमारी दबंग नानी की कठोर मुख मुद्रा के आगे लड़कियां ही घर आने के नाम से कांपती थी ...तो यहाँ तो मामला लड़कों का था ...एक बार तो दिल धक् रह गया ...क्यूँ पूछ ताछ कर रहे है मेरे बारे में ...मामी ने हिम्मत बंधाते हुए कहा ...." जा कर बात तो करो ...शायद कुछ पढ़ाई के विषय में पूछ रहे हों ...आखिर तो सौ कोस तक बुद्धिमान/बुद्धिमती माने जाते रहे थे ...:)

डरते डरते पूछ ही लिया ..." क्या बात है ...?"

उधर से जवाब मिला " आज फीस जमा करने की आखिरी तारीख थी ..."

मैंने त्योरियां चढाते हुए पूछा ..." हाँ ...तो ...?"

" तो ...क्या ...आपकी फीस जमा नहीं हुई है अभी तक ....?"

मेरे तो पैरों के नीचे से जमीन सरक गयी ....एक पूरा साल बर्बाद ...आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा था ...तभी उस लड़के ने अपने हाथ में पकडे रजिस्टर से लाल रंग का कुछ कागज़ निकलते हुई आगे कर दिया ....

" फीस भर दी है आपकी ...आज आखिरी तारीख थी ..."

दोनों लड़के अपनी राह पर आगे बढ़ गए ...मैं बदहवाश -सी खड़ी रह गयी ...इतना ध्यान भी नहीं रहा कि कम से कम धन्यवाद तो कर दूं ....तब तक मामी पास आ गयी थी ...मैं उनके गले लग कर अपने ममेरे भाई को कोसते हुए फूट पडी ...
मामी भी हतप्रभ ....ऐसा कैसे हुआ ...विजय ने कैसे याद नहीं रखा ...आज आने दो उसको ....

खैर ...दूसरे दिन विजय के हाथों फीस तो उस लड़के तक पहुंचा दी ...उसके बाद एक्ज़ाम शुरू हो गए...सुना था धनेश (शायद यही नाम था ...कृतघ्नता की हद है ना ...नाम तक ढंग से याद नहीं ) का NDA में सलेक्शन हो गया था ....और हम भी अपने माता पिता के पास बैक टू पवेलियन हो चुके थे ...अफ़सोस रहता है कि मैं उसके इस अहसान का धन्यवाद भी नहीं कर सकी ...

सोचती हूँ ...यदि वह शख्स मुझे यहाँ ब्लॉग पर या वास्तविक दुनिया में मिल जाए तो मैं उससे अपना क्या रिश्ता साबित कर पाउंगी ...
क्या इंसानियत के सिवा और कोई रिश्ता था यह ...
सोच रहे हैं ना आप भी ....
सोचते रहिये ...
मुझे भी बता दीजिये ....क्या कहलाते हैं ये रिश्ते .....