गुरुवार, 18 मार्च 2010

काँधे मेरे तेरी बन्दूक के लिए नहीं है .....

ऐसे ही कुछ अटपटे शब्द ....





मैं
नादान
नाजुक
कमजोर
हताश
मायूस
तुम्हे लगती रहू
मगर
याद रख
कांधे मेरे
तेरी बन्दूक के लिए नहीं है ....

छोटे हाथ मेरे
नाजुक अंगुलियाँ
भले होंगी मेरी
भार उठाएंगी
खुद इनका
जरुरत हुई तो ....

जीतना मैं भी चाहूं
तू भी
बस जुदा है
रास्ता तेरा - मेरा
जीतना चाहती हूँ मैं
सम्मान से सम्मान को
प्रेम से प्रेम को .....
जीत स्थायी वही होती है
जो
मिले
दिलों को जीत कर
युद्ध शांति का पर्याय कभी नहीं होता
देख ले
इतिहास के पन्ने पलट कर

आखिर महाभारत से किसने क्या पाया
क्या सच ही....
शांति ....??
कलिंग जीत कर भी
अशोक क्यों चला
शांति की ओर
लाशों के ढेर
कभी आपको नहीं दे सकते
सम्मान ,शांति और प्रेम ...

सिर्फ दे सकते है
घिन
वितृष्णा
नफरत ...
और घबरा कर जो बढ़ेंगे कदम
तो तय करेंगे
राह
सिर्फ
प्रेम और शांति की ही ...

रविवार, 14 मार्च 2010

केवल तुम हो ...तुम

तुम
अपरिचित थे
बुरे नहीं
भले लगे थे
किन्तु
ह्रदय में एक भी
बुलबुला नहीं फूटा
कि
दृष्टि उठा कर तुम्हे देख लूं
तब
ना जाने कौन सी
किरण की इंगित
तुम्हे मेरे करीब
खींच रही थी
मेरी पीर से तुम में
पीर जगा रही थी
अब
ना जाने कौन सी रास
तुम्हे खींचती हुई
मेरे इतने करीब ले आई है
कि आश्चर्य है
तुम वही हो
जिसे तुम्हारी ख़ुशी के लिए
तुम्हारी आँखों को
उदासियों के बादल
घेर ना लें
इसलिए अपना सबकुछ दे दिया
कि
जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी
तुम
मुझे ले आये हो
एक अनजान
आँगन में
जो इस ओर से उस ओर तक
अजनबी है मेरे लिए
स्नेह और सुव्यवहार
भरे अजनबियों
वह एक
जिसने मेरे रागों के इस द्वार को
सोये से जगाया है
मेरे रागों का अपना है
वह केवल
तुम हो
तुम


खास अदाजी की फरमाईश पर पुरानी डायरी में संकलित कविताओं में से ...लेखिका का नाम याद नहीं रहा अब ....